2

उपहार

 इस रचना के साथ ही "तुम्हारे लिए"  पुस्तक सम्पूर्ण हुई.  


उपहार


मैं कैसे मनाऊँजनम दिन तुम्हारा?
जनम दिन तुम्हारा ये शुभ दिन तुम्हारा, मैं कैसे..............

ये शुभ कामनाएं तुम्हें किस तरह दूँ?
हज़ारों दुआएं तुम्हें किस तरह दूँ? 
कैसे दूँ तुमको ये  उपहार प्यारा?   मैं कैसे.............

यही कामना है सदा खुश रहो तुम
जीवन के सुख दुःख को हँस कर सहो तुम
संसार सागर में पाओ किनारा. मैं कैसे.............. 

ये शब्दों के मोती तुम्हारे लिए हैं
स्वप्न-भेंट छोटी तुम्हारे लिए है
तुम्हारे लिए है ये जीवन हमारा.  मैं कैसे..............

*************
0

मुक्त

मुक्त

मुक्त मुक्त मुक्त , 
उन्मुक्त सुप्त गुप्त, 
अहो! मुक्त हो  गया मानव
जीवन के बंधन से
मुक्त हो गया मानव
सुख दुःख के क्रंदन से 
मुक्त हो गया मानव
सृष्टि कण में विचरण को 
मुक्त हो गया मानव 
इश्वर दर्शन को 
यह सुप्त अवस्था
अक्षय शांति देने वाली
वह स्वप्न जो मानव देख रहा था 
लुप्त हो गया 
यह गुप्त बात है
नहीं किसी ने
अब तक जानी 
क्या देख रहा है "स्वप्न"
तुम्हें बतलाये कैसे
जो मानव सो गया.


*****************
0

याचना

याचना

तुम्हारी आवाज़ को मैंने
अपने अंतर्मन में सुना
तुम्हारी तस्वीर को अंतर्दृष्टि से देखा
फिर भी मैं तुम्हें न पहचान सका
जीवन के प्रारंभ से पहले
मैं तुमसे मिला था
जब मैं तुमसे बिछुड़ कर मनु बन गया था
पहचानता भी कैसे
आज युगों बाद
मैं अपनी दृष्टि भी तो खो चुका था
लेकिन तुम्हारी आवाज़
कुछ जानी पहचानी सी लगी
क्यूंकि मुझे याद है
तुम्हारी ही आवाज़
मेरे अंतर्मन तक पहुँच सकती थी
लेकिन तुमने मेरी दृष्टि क्यूँ छीन ली
मुझे मेरी वही दृष्टि दान दो
मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ
तुम्हें पहचानना चाहता हूँ
  कि  तुम वही हो या नहीं
जिसे मैं खोज रहा हूँ युगों से 
पा रहा हूँ युगों से,
 खो रहा हूँ युगों से .


***********
2

प्रतीक्षा:भावी की

प्रतीक्षा:भावी की

भावी, अवश्यम्भावी
अद्रश्य अमूर्त का दर्शन
सिर्फ स्वप्न में ही नहीं
आत्मीय जनों का युगों  बाद मिलन
आश्रम का परिवर्तन
और शिशु जन्म
नाम ना जान सका
किन्तु कर लिया
मधुलिका का चुम्बन
सत्य होता हुआ
वह धुंधला स्वप्न, शांत सागर की एक समय से
स्वयं ही में उफनती उर लहरों का 
पूर्णिमा के चाँद को देखकर
उसको पाने को दौड़ना
प्यासी सीप में
मुक्ता बन्ने वाली बूँद का आना,
अज्ञात बादल से .
अज्ञात उद्गम स्थल से ,
निकली इठलाती मचलती नदी का
सागर में विलीन हो जाना.
एक चित्रकार का 
बन्ने वाले चित्र की
भाव भंगिमा में विचारों में
पूर्ण तल्लीन हो जाना
चौराहे पर खड़े यात्री का
उस राह  को छोड़ कर
जिससे वह आया है
उस राह को खोजना
जिसपर उसे जाना है
और सहयात्री की तलाश
प्रतीक्षा है भावी की.

***********
0

पी-पी कि ध्वनि

पी-पी की ध्वनि

प्रज्वलित धरती की तपन और सूखे होंठ
शीतल तीव्र पवन
काली घटाएं
वर्षा का सन्देश
दूधिया बादल से
स्वांति की बूँद
मध्य में ही कहीं
अटकी-भटकी
पपीहा की तड़पन
हर बूँद में स्वांति का दर्शन
झूठा प्रतिबिम्ब
सूखे होंठों की प्यास
प्रतिपल स्वांति के आगमन की आस
मौन खंडहरों में
प्रतिध्वनि की आशा से
की गई ध्वनि
ध्वनि के कहीं तक जाने
और लौट कर आने तक की प्रतीक्षा
उस ध्वनि के
अन्तरिक्ष के खोखले तन में
टूटकर बिखर जाने के बाद
मिली निराशा
रात्रि के गहन अन्धकार में
स्वप्न मंदिर में
अचानक
 एकाकीपन का अंत
माथे की बिंदिया
मांग का सिन्दूर
मधुर मिलन
भोर की प्रथम किरण के साथ ही
मंदिर से निकली ध्वनि प्रतिध्वनि
स्वप्न मंदिर की मूर्ति का
टूट कर बिखर जाना
प्राप्त निराशा
लेकिन उस अस्तित्व की संज्ञा के
बोध का प्रश्न चिन्ह
वही पी पी की ध्वनि
और सूखे होंठ.


**********
1

निवेदन

निवेदन

ओ अंतर्वासिनी 
यदि मैं अपनी
ह्रदय वेदना का भार
तुम्हें सौंप दूँ 
तो क्या तुम मेरा सन्देश 
"उस" तक पहुंचा दोगी
मेरी आस्था कि पंखुरियां 
मुरझा कर ना बिखर जाएँ 
इससे पहले
मेरा अश्रु निर्झर
मेरे विश्वासों कि श्रंखला को 
तोड़ कर बह निकले 
इससे पहले
हे अंतर्वसिनी
तुम्हें उस तक पहुंचना होगा 
सुनो! यदि मेरी ह्रदय-वेदना
बहुत भारी है
तो "वह" तुम्हें निकट ही मिल जायेगा 
और तुम्हारा भार स्वयं वहां कर लेगा 
इसके विपरीत यदि वह हलकी है
तो तुम्हें "उसकी" खोज में भटकना पड़ेगा
किन्तु "वह" मिलेगा अवश्य.

*************


0

सूक्ष्म

सूक्ष्म

सूक्ष्म का विस्तार
और सागर में भंवर
अद्रश्य, द्रश्य और अद्रश्य
जीवन के स्वर
बिन्दुओं के अनेकों बिम्ब
प्रतिबिम्ब
पुनः डिम्ब
अवलंबित का आधार
निराधार
निराधार का विस्तार
विश्वाधार
अनंत का शैशव अंत 
अंत कि किलकारी मृत्यु
किलकारी का स्वर
मृत्यु-पर्यंत गर्भायु
और अनंत दर्शन
अनंत का अटूट बंधन
सौंदर्य बोध मधुबन
सूक्ष्म का संकुचन
और अनंत विहार.


***************










a
1

तब अब

तब अब

अभी बैठे थे
सभी रिश्तेदार
मित्रगण
कितने विचित्र थे वे क्षण 
आकाश पर महल बना
सितारों पर
कर रहे थे भ्रमण 
दीर्घायु पाने के लिए 
सबके जाने पर मैं 
अकेला रह गया हूँ
एकांत देख 
विचारों में बह गया हूँ
देख रहा हूँ
एक गहरी  खाई 
जिसकी गहराई में,
मैं बढ़ा जा रहा हूँ
अनंत में विलीन होने के लिए
अपने विचारों के साथ 
उनके पीछे
जो जा चुके हैं
इस अनंत के किसी अंत तक
मुझे बुलाने के लिए.

*************


1

वह

वह

प्रातः 
माँ ,  मैं
मैं क्या?
मैं? मैं
दोपहर,
मैं, मेरा,
तुम, तुम्हारा 
सांझ,
मैं मेरा,
तुम , तुम्हारा,
यह, इसका, 
सब, सबका,
अब शायद, वह
वह उ-स-का 
किन्तु घोर अँधेरा!
फिर कब सवेरा ?
अज्ञात.
प्रातः
माँ .  मैं,  क्या?
"मैं"   "वह"
"वह"
"उसका"
दोपहर
"वह" "उसका"
सांझ
"वह" "उसका"
और, तीव्र प्रकाश
फिर कब अन्धकार?
अज्ञात.

**********

0

बढ़ो हे !

बढ़ो हे !

बढ़ो हे !
मनु-तरु के पुत्र
पृथ्वी के तिमिर गर्भ से निकल
उस अनंत अन्तरिक्ष कि ओर
उन कंटीली झाड़ियों को रौंध कर
जो छेड़ देती हैं
नव प्रस्फुटित कोपलों को
और पकने तक वह छिद्र
कई गुना बड़ा हो जाता है
बनजाता है 
एक खोखला सा निर्बल तरु
और क्षुद्र पवन वेग के माध्यम से
परिचित हो जाता है उससे
अक्षय अनंत मरू
ज्ञात है, संगती का प्रभाव
मात्र उसमें प्राण का आभाव
किन्तु मिटटी देह 
मिटटी में मिली हुई 
जो तपती रहती है
अनंत कल तक मरुस्थल में
सूर्य कि गर्मी से
यह मुक्ति तो नहीं
यह जीवन तो लाखों को मिलता है
और लाखों कि नानति है
कथित गाथा
किन्तु कोई एक ही 
उन कंटीली झाड़ियों को रौंध कर 
उस असीम कि ओर बढ़ता है
किसकी पुष्पांजलि
विश्व बंधु की पूजा की थाली में
सुसज्जित होती है
वह मुक्ति होती है
इसलिए
बढ़ो हे!
मनु-तरु के पुत्र
पृथ्वी के तिमिर गर्भ से निकल
उस अनंत अन्तरिक्ष की ओर. 


*******************