0

बढ़ो हे !

बढ़ो हे !

बढ़ो हे !
मनु-तरु के पुत्र
पृथ्वी के तिमिर गर्भ से निकल
उस अनंत अन्तरिक्ष कि ओर
उन कंटीली झाड़ियों को रौंध कर
जो छेड़ देती हैं
नव प्रस्फुटित कोपलों को
और पकने तक वह छिद्र
कई गुना बड़ा हो जाता है
बनजाता है 
एक खोखला सा निर्बल तरु
और क्षुद्र पवन वेग के माध्यम से
परिचित हो जाता है उससे
अक्षय अनंत मरू
ज्ञात है, संगती का प्रभाव
मात्र उसमें प्राण का आभाव
किन्तु मिटटी देह 
मिटटी में मिली हुई 
जो तपती रहती है
अनंत कल तक मरुस्थल में
सूर्य कि गर्मी से
यह मुक्ति तो नहीं
यह जीवन तो लाखों को मिलता है
और लाखों कि नानति है
कथित गाथा
किन्तु कोई एक ही 
उन कंटीली झाड़ियों को रौंध कर 
उस असीम कि ओर बढ़ता है
किसकी पुष्पांजलि
विश्व बंधु की पूजा की थाली में
सुसज्जित होती है
वह मुक्ति होती है
इसलिए
बढ़ो हे!
मनु-तरु के पुत्र
पृथ्वी के तिमिर गर्भ से निकल
उस अनंत अन्तरिक्ष की ओर. 


*******************

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

WELCOME