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कृष्ण मॉधुर्य व्याख्या बुक 1 पार्ट 2 uma sarpal

रचना-24
विरह की पीड़ा क्या होती है तुम क्या जानो बनवारी
एक वियोगन क्यों रोती है तुम क्या जनों गिरिधारी
विरह की पीड़ा …..
पल पल याद किसी की आकर कैसे मन को तड़पाती है
लगी द्वार पर अखियाँ पल पल कैसे दिल को धड़काती हैं
प्यास मछरिया क्या होती है तुम क्या जानो बनवारी
विरह की पीड़ा …..

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

राधे जु की करुण पुकार है आज की रचना ! जितना समर्पण राधा जी कान्हा प्रति दिखा रही हैं , उतना कान्हा नहीं दिखा रहे हैं ! इसीलिए तो साँवरे को अपने प्रेम का वास्ता दे , उनको अपनी ओर निहारने की ताकीद कर रही हैं जिसे रचनाकार मेरे भैया ने बहुत सुंदर शब्दों में व्यक्त किया है …..घर के सभी कामों को …..बीच में ही छोड़ …..तुझे मिलने चली आई हूँ कन्हाई.....तुम मेरी ओर  आँख उठा देख मात्र तो लो …...तेरे ऐसे चलन को देख ….मैंने भी लोकलाज को  तिलांजलि दे दी …..अब तुम भी तो मुझे निहार लो ….नज़र भर देख ही लो …..मोसे नज़रें चुराए क्यों बैठे हो कन्हाई ….मैं हूँ….तुझे समर्पित हो …..तेरी चाकरी और गुलामी …….दोनों करने को भी तैयार हूँ …..एक बार वँशी की टेर में …..मेरा नाम ले मोहे पुकार तो सही …..तेरा रूठना …..मेरे प्रिय ….मोहे अपने रब के रूठने जैसा …..लग रहा है …..निर्मोही ….. ऐसे कर्म तो न कर …..जो दूसरे के मन को ठेस पहुंचाए …..तुम भी मोसे ….मुझ जैसा ही विशुद्ध प्रेम कर …..जिससे यह जीवन सँवर जाए …..मैं तो , सच कहूँ …..तेरे प्रेम की मतवाली हूँ …..उस इंतहा तक ….जिसे लोग …..पगली …..दीवानी ….कहते हैं …..मैं तो कान्हा तोसे प्रेम करती ही हूँ …..तुम भी मो सा प्रेम मुझ से करो ना….मो सा प्रेम मुझ से करो ना…..! रचना राधा जु के कान्हा प्रति समर्पित प्रेम को दर्शा रही है और बदले में कान्हा से वैसे ही प्रेम की इच्छुक हैं , प्रेम निभता ही वहाँ हैं *जहां प्रेम अगन हो दोनों ओर बराबर लगी हुई *! एक तरफ़ा प्रेम तो श्रद्धा है ! ऐसी मनोहारी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार धन्यवाद ! प्रेम के बदले प्रेमियों को प्रेम की चाहत तो रहती है , दर्शाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

श्यामसुंदर सवेरे सवेरे तुम वँशी बजाया करो ना
नाम ले ले के मुरली में मेरा मुझे घर से बुलाया करो ना

        श्यामसलोना मुरलीमनोहर

रचना-25

हैं बहुत शिकवे मेरे तुझ से कन्हैया
पर बयाँ कैसे करूँ मजबूर हूँ
सामने होता तो , लड़ते औे झगड़ते
पास होते भी , मैं तुझसे दूर हूँ ! हैं बहुत शिकवे …..
एक तड़प है , एक कसक है साँवरे
दर्द दिल का जख्म बनता जा रहा है              

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

राधे जु को बहुत शिकवे शिकायते हैं कन्हाई से ! कहने को तो कान्हा निर्लेप हैं पर अपने पक्ष में हवाला दे राधे जु पूछती हैं अपने साँवरिया से , जो आप करते हो उसे मैं क्या परिभाषा दूँ ! प्रेम तो है कन्हाई को , पर प्रदर्शित नहीं करते ! रचनाकार मेरे भैया राधे की दी उदाहरणों को परत दर परत यूँ खोलते हैं …..कान्हा ….मुझे ये बता …..गर मुझ से प्रेम नहीं तोहे ….मेरे सपनों में भला क्यूँ आते हो ?......सपनों में आ मेरी नींद में खलल क्यों डालते हो …..वँशी में मेरा नाम ले ले …..मोहे क्यों पुकारते रहते हो …..यमुना किनारे कदम्ब के पेड़ों पर …..झूला डाल मुझे क्यों झुलाते हो ?.....कभी मैं रूठ जाऊँ तो मनाने भी लगते हो ….कन्हाई यह तुम्हारा प्रेम नहीं तो क्या है ?.....हँसी मजाक करते भी …..कभी मुझे नाहक रुला देते हो …..कभी मनाने लगते हो …..कभी रूठ कर दूर जा बैठते हो …..और कभी मनाने के लिए …..अपने पास बुलाने लगते हो …..मुझे अपने प्रेम विरह में …..तडपा कर …..आखिर तुम्हें मिलता क्या है …..कभी फूलों से मेरा श्रृंगार करने लगते हो …..श्रृंगार कर प्रसन्न भी हो जाते हो ….मीठी मीठी बातें कर मेरे मन को  ….तरंगित करते रहते हो …..और कभी निष्ठुर तोते की तरह …..नज़रें फेर भी लेते हो ….. मोहे अपनी बाहों में ले …..कभी कभी रास भी तो रचाते हो ….और कभी अपने गीतों और संगीत की ताल पर …..मोहे नचाने लगते हो ….यह सब मैं सपनों में देखती हूँ मैं कन्हाई …..और जब सपना टूट जाता है …..अपने आपको आसमान से …..गर्त में गिरी महसूस करती हूँ …..खाट पर लेटी पाती हूँ …..! रचना स्वप्न में कान्हा का राधे प्रति अथक प्रेम दर्शा रही है , जबकि स्वप्न टूटने पर राधेजु  बिकल हैं ! स्वप्न कब आसमान पर चढ़ा गड्ढे में गिरादे ,कह नहीं सकते ! ऐसी अनुपम प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! दिन की याद आती बातें अचेत मन मे सक्रिय हो रात को स्वप्न में दीखती हैं , जताने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

इक दिन श्याम मेरे सपने च आ गया
मत्थे बिंदी लाके बाहीं चूड़ियां चढ़ा गया
सपने दे विच मैं सुहागण हो गईआं कीवें खोलाँ मैं अक्खियां
अक्खियां दे विच तां कन्हैया बसदा कीवें खोलाँ मैं अक्खियां

            गोविन्द हरि , गिरिधारी , बनवारी

रचना-26

कान्हा तुझे वँशी में राधा पुकारे
आजा आजा आजा कान्हा यमुना किनारे
कान्हा……
छुपती छुपाती मैं पनघट पे आई
वादा किया क्यूँ दिया ना दिखाई
ये भी कोई चाल है क्या सखा रे
कान्हा ……

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )

कन्हाई को याद करती हुई राधे जु समर्पित भाव से स्वतःमन ही मन प्रसन्न हो नृत्य करती हुई , पायल की रुनझुन में खोई हैं ! कान्हा की वँशी की मधुर धुन पर स्वयं तो घर के कामकाज छोड़ चली आईं हैं पर कन्हाई कहीं दिखाई नहीं दे रहे ! राधे जु के भावों का ,  रचनाकार मेरे भैया यूँ वर्णन कर रहे हैं …..कन्हाई ...तेरी वँशी की मधुर धुन सुन ….बावरी सी तेरी राधे….नृत्य करने लगी है ….पैरों में पड़ी पायल छमा छम….. रुनझुन सी छनक रही है ….साँवरिया ….वँशी क्या बजाई तूने …..मैं तो घर के सारे काम छोड़ …..लोक लाज के बन्धनों को तोड़ ….तुझसे मिलने चली आई हूं …...तुम कहाँ छिपे हो …..तुझ बिन मेरे मन को चैन कहाँ ? …...सामने हो दरस तो दिखा दे ...मेरी ओर देख ….प्रेम की रीत निभाती हुई …..तुझ से मिलने चली आई हूँ …...बिल्कुल पागलों की तरह …..तुझ से मोहे नेह है ना ….आ तुम भी तो आकर  मिल …..निर्मोही …..निष्ठुर न बन …..मेरा तन मन तुझे समर्पित …..मेरे जीवनाधार …..मेरे साँवले सलोने ….मोसे इस तरह की लुकाछुपी न कर …..तुम जीते मैं हारी …..अब तो आ मोहे अपने आलिंगन में लेले ….वँशी की तान लगा …..गोपियो को बुला …..रास रचाएं  मेरे प्राणधन …..तेरे विरह में आँखें भीगने लगी हैं …….मेरे भी दुख सुख सुनले …..और मोहे ले ले अपनी बाँहों में …..मेरी तो पायल भी छम छम कर …..बुला रही है तोहे रास के लिए …..बुला रही है रास के लिए ……! रचना राधेरानी की विरह वेदना को दर्शा रही है !  कन्हैया बिन राधे को चैन कहाँ ! यही विह्वलता …..यही कन्हाई की याद तो भक्ति है राधेरानी की ! ऐसी प्रेमपूरित प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! सुमिरन के लिए प्रेम विरह अत्यावश्यक है , का ज्ञान देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

वँशी मनमोहन दी वजदी कमाल कर गई
ज़माना सारा रुक नी गया, जदों बुल्लां उत्ते श्याम धर लई

          रास रासेश्वरी श्री राधे , रासबिहारी कृष्णा

रचना-27

राधे बोलो साथ तुम्हारा कैसे भूलूँ
हाथों में था हाथ तुम्हारा कैसे भूलूँ ! कैसे भूलूँ …...
सम्भव नहीं भुलाना यादें बड़ी सुहानी
हरपल लगें नई सी जितनी होय पुरानी
चल चित्रों सी चलें नयन में बनी कहानी
बृज में तुम सङ्ग , समय गुजारा कैसे भूलूँ , कैसे भूलूँ ….

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

राधेरानी के प्रेमविरह के उत्तर में कान्हा कुछ कहना चाहते हैं ! उन्हें भी राधेजु से प्रेम हैं ! कन्हाई को कर्तव्य पूर्ति के लिए बृज को छोड़ना पड़ा , इसका अर्थ ये नहीं कि वे राधेरानी को भी भूल गए ! वे भी सदा राधेे विरह की बात करते हैं ! कन्हाई के राधे प्रति भावों को रचनाकार , मेरे भैया यूँ व्यक्त करते हैं …...मेरी राधिके …...मो पर अपनी कृपा सदा बनाये रहना …..मेरा प्रेम तुम्हीं से शुरू …..और तुम्ही तक सीमित है …...हमारा अटूट प्रेम सम्बन्ध जन्म जन्मान्तरों से है …..जैसे दीपक और बाती का …...हमारी प्रीति तो युगों युगान्तरों पुरानी है…. .तुम तीनो लोकों की मालिक हो ….जो भी तेरा सुमिरत करता है …..उसकी मुक्ति अवश्यासम्भावी है …..पृथ्वी ….आकाश ….और जल में तुम्ही समाई हो …...मेरी वँशी भी तुम्हारा नाम बड़े प्रेम से लेती है …...तुम सांसारिक बन्धनों को तोड़ …..मेरे पास आ जाओ …...मेरे मन मे विराजो …...जिस पर तेरा साम्राज्य है …..मेरे सुरों से अपने सुर …….संगीत मिला ….मेरे गीतों को गा …..उन्हें अमर करदै ….जिन्हें सुन दुनिया दीवानी हो जाये …...दुनिया दीवानी हो जाये …..! रचना कान्हा के राधे प्रति प्रेम को दर्शा रही है ! कृष्ण राधे के अराध्य हैं , राधे भी तो कृष्ण की स्वामिनी हैं ! दोनों की प्रीत दीये और बाती जैसी ! ऐसी अनुपम प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! राधे जु को कान्हा विरह सताता है तो कान्हा भी तो अछूते नहीं , का ज्ञान देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

तीन लोक से न्यारी हमारी राधेरानी है
ब्रह्मा विष्णु पार न पावें , ऋषि मुनि तेरा ध्यान लगावें
इंद्र करे बुहारी , हमारी राधेरानी है
तीन लोक से…….

                  सर्वेश्वरी जगत कल्याणी राधेजु

रचना-28

मैं बावरी कान्हा की प्यारी हो गई
अपने प्रीतम की प्यारी हो गई
अब तो जीने का मज़ा आने लगा
जग में रहना भी मुझे भाने लगा
दिल हिलोरे ले रहा है मौज में
एक विरहन एक पुजारी हो गई
मैं बावरी …….

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )

कृष्ण राधे से अत्यधिक प्रेम करते हैं ! राधेजु की सेवा करते रहें हैं , उनकी चरणचाप , मेहंदी , और बाल सज्जा करते अकसर हम  देखते ही हैं ! इसके इलावा क्या क्या श्रृंगार कान्हा राधेजु का करते हैं इसका विस्तार रचनाकार , मेरे भैया यूँ करते हैं …..कान्हा ….मुरलीमनोहर ने आज मेरा श्रृंगार किया ….और वो भी खूब …...कंघी कर बालों को सँवार ….सुंदर चोटी गूँथ दी …..भाल पर बिंदी लगाई …...मांग को मोतियों से सजाया …..और गले में हार पहनाया …..आँखों मे कजरा डाल …...उन्हें सुंदर बना दिया …..नाक में  नथनी …..कानों में कुण्डल डाल …. मोको समर्पित कर दिए ….. कलाई में कंगन….उंगलियों में अंगूठी …..बड़ी दक्षता से पहना दीं …..कमर में करघनी.पहना ….. मोहे खूब सजा दिया ….पैरों में पायल पहना …..मेरा श्रृंगार पूर्ण कर दिया …..पूर्ण कर दिया ……! रचना कन्हाई द्वारा राधे ज के श्रृंगार का दृश्य को दिखा रही है ! कन्हाई ने अपनी प्रियतमा को नख से शीश तक सजा , नवल नार बना दिया है ! ऐसी दिलकश प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! सजी हुई नई नवेली राधेजु के दर्शन करवाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

एक बार जो बोले राधा , मिट जाए जन्म मरण की व्याधा
चरणकमल बलिहारी , हमारी राधेरानी है
तीन लोक से न्यारी हमारी राधेरानी है

                  जय श्री राधे जी

रचना-29

कन्हैया मेरा हाथ पकड़े रहो
कान्हा जी मेरा हाथ पकड़े रहो
मैं तुम्हारी शरण मेरे  राधा रमण
सदा मुझ पर करुणा करते रहो
कन्हैया मेरा हाथ पकड़े रहो
हाथ छूटन तो मैं भटक जाऊँगा
फिर त्रिशंकु सा जग में लटक जाऊँगा
है मेरे नाथ अपराध हरते रहो
सदा मुझपे करुणा करते रहो ! कन्हैया ……

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

एक गोपी के भाव हैं आज की रचना ! जब से कन्हैया की दीवानी हुई है , जीना भाने लगा है , मन हर समय प्रसन्नचित्त अपने कान्हा की ही चितवन में खोई रहती है ! कान्हा ही की खुमारी में अपनी भी सुधि नहीं रहती ! उसके इसी भाव को रचनाकार मेरे भैया ने यूँ प्रस्तुत किया है …..मोहे कान्हा से नेह हो गया है …..उसी की चितवन की दीवानी हो गई हूं ….उसके सानिध्य का आनन्द आने लगा है …..उसी के भरोसे …..जीने की इच्छा प्रबल हो गई है …...दिल हर समय …..उसके प्रेम में तरंगित रहने लगा है …...कभी कान्हा के वियोग में ….सिसकती थी …..अब तो अपने साँवरे की …...उपासिका हो गई हूँ …..उससे किया नेह ….परवान चढ़ने लगा है …..हर समय मेरी नज़रों में जो समाया रहता है …..अजीब सी खुमारी …..आँखों मे नशा से रहने लग गया है …..रिश्तों नातों के बंधन तोड़ …..विरक्त हो गई हूँ …..उसके लिए सभी से विमुख हो चुकी हूँ ….बस उसी की जोगनिया हो गई हूँ …..सब मोहे पागल समझते हैं …..मोहे संसार पागल लगता है …..अब जो दर्द मेरा कन्हाई मोहे देगा …..उसकी दवा भी वही करेगा …. दवा भी तो वही करेगा …..! रचना कान्हा को समर्पित भक्त का भरोसा जता रही है ! उसकी लगन में अगर विरक्ति भाव पैदा हो जाये तो वो भी निज जन को थाम लेता है ! ऐसी प्रेमपगी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कान्हा ही सर्वोपरि हैं , का ज्ञान देने केलिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

तेरी भक्ति मेरे मन भायी तुम्हारा प्रभु प्यार चाहिए
जब से लगन मेरी तुमसे लगी है
तबसे मिलने की ममता जगी है
देव अब तो दुःखियों के दुख टार जाईये
तेरी भक्ति …..

              हे गोविन्द , हे गोपाल

रचना-30

मुझको मोहिनी मधुर मुरलिया पागल कर गई रे
श्याम तेरी सुरतिया भोली दिल में उतर गई रे
पागल कर गई रे पागल कर गई रे
घायल कर गई रे …..

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

कन्हैया छलिया है , चित्तचोर है , अपनी टेढ़ी चितवन से ऐसा घायल करता है , रसिक ठगा ही तो रह जाता है ! ऐसी ही उसके नयन कटारी से घायल गोपिका के भाव हैं आज की रचना ! उससे मटकी फोड़ देने से पुलकित गोपी के भावों को रचनाकार मेरे भैया ने यूँ छुया है …..*आँखों की तलाशी दे दे मेरे दिल की हो गई चोरी* …..का भाव रखने वाली गोपी कहती है …..मेरा दिल इसी चित्तचोर ने चुरा लिया है …..ये काला कनवा …..काली कमली वाला ….दिलों पर डाके डालता है …..आँखें क्या मिलीं उससे …..अन्तस तक उतर गईं …..ठगी सी खड़ी आनन्द में भावविभोर हो गई ….न मालूम कैसा चुम्बकीय आकर्षण है …..उस बृज के कान्हा का …..मोर मुकुट माथे पर …..वँशी सदा हाथ में रहती है उसके …..छड़ी मार मेरी मटकी फोड़ दी …..सारा दही बिखर गया …..उसके प्रेम में मन मोर की तरह …..नाचने झूमने लगा …..उसके रूप लावण्य की क्या कहूँ ….जितनी भी प्रशंसा करूँ कम है …...ऐसी मस्ती से भर दिया मोहे …..जैसे पागल ही तो कर गया …...पागल ही तो कर गया ……! रचना भक्त के कान्हा प्रति अत्यधिक प्रेम को दर्शा रही है ! उसका मटकी फोड़ना भी सौभाग्य लगता है ! ऐसी नेहपूरित  प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कृष्ण के प्रति मन को तरंगित कर देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक मङ्गलाशीष !

श्यामसुंदर सवेरे सवेरे तुम वँशी बजाया करो ना
नाम ले ले कर मुरली में मेरा मुझे घर से बुलाया करो ना
काँधे पे काली कमरिया और हाथों में लेकर मुरलिया
मेरे घर के अगाड़ी पिछाड़ी तुम चक्कर लगाया करो ना
श्यामसुंदर ……

                  राधारमण मेरो

रचना-31

विरह की पीड़ा क्या होती है तुम क्या जानो बनवारी
एक विरहन क्यों रोती है तुम क्या जानो गिरिधारी
विरह की …..
पल पल याद किसी की आकर कैसे मन को तड़पाती है
लगी द्वार पर अखियाँ पल पल कैसे दिल को धड़काती हैं
प्यास मछरिया क्या होती है तुम क्या जानों बनवारी
विरह की पीड़ा …..

(श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

कृष्ण बैठे हैं , पीछे से , चुपके से आ राधे उनकी आँखें मूंद लेती हैं , पूछती हैं कन्हाई से , पहचान कौन ? कन्हाई राधेजु को जो उत्तर देते हैं उसे रचनाकार मेरे भैया ने यूँ वर्णित किया है …..तुम्हारा नाम क्या लूँ …..संक्षेप में, मेरा प्यार हो तुम …..चुप क्यों हो ?.....कहो न ठीक हूँ मैं ?......क्या क्या नाम लूँ ...राधा…….रासेश्वरी …..भानुसुता…..बरसाने वारी ?.....मेरे प्राण…...मेरी स्वामिनी हो तुम …..हम दो शरीर एक आत्मा हैं …...जब तुझ और मुझ में कोई अंतर ही नहीं ….तो तुम्हें मैं गैर कैसे मानूँ …...तुम मुझे और मैं तुम्हें …..खूब जानते हैं ….एक दूसरे की महक से हम परिचित हैं …..तुम्हारे स्पर्श मात्र से ही …..मेरा दिल खिल उठता है …..तुम मेरा जीवन …..तुम्हीं मेरी शक्ति हो ….तीनों लोकों में तुम्हारा राज्य …..वृन्दावन की महारानी हो …..सुन्दरता में तुम्हारा कोई सानी नहीं …..*राधे मेरी स्वामिनी …..मैं राधे को दास* हूँ …...और तुम मुझे प्राणों से भी प्यारी हो …..तुम तो प्रेम-दान की दानी …..सब मे प्रेम का संचार करती हो …..प्रेम का संचार करने वाली हो !
                     इसी तरह कन्हाई राधे जु की आँखे , चुपके से आ मूँद लेते हैं और पूछते हैं राधे से , पहचान कौन ? राधेजु का उत्तर …..कैसे नाम लूँ तुम्हारा ?.....मेरे प्यार हो और क्या ?.....तुम्हें क्या कहूँ …..कृष्ण …..श्याम …..कन्हैया ….वृन्दावन के  नंद जी का छोरा ….अपनी जान ….या जीवन की सरकार कहूँ …..हम दोनों में कोई भेद है क्या ? …..जब भेद ही नहीं ….हम दोनों एक हैं …..फिर अलग नाम भी कैसे  हुआ …..क्या नाम लूँ ….हम एक दूजे के मन को …..अच्छी तरह समझते हैं ….एक दूजे की खुशबू से ही पहचान लेते हैं …..हाथ का स्पर्श मात्र ….जीवन को तरंगित कर देता है ….भँवरे की तरह …..सदा मेरे इर्द गिर्द मंडराते हो …..अभी भी बताने की ज़रूरत है…..तुम मेरे कौन हो ?......कान्हा …..तुम संसार में …..सब से सुंदर हो ….तुम्हीं ने सृष्टि की रचना की …..माया ठगनी तेरी ही पैदाइश है …..मैं तुम्हारी सेविका …..और तुम मेरे जीवन सर्वस्व  ….मैं  तुम्हारा प्रेम ही चाहती हूँ …..और तुम प्रेमवतारी प्यार बांटते हो …..प्रेम बांटते हो ……! रचना कन्हाई ओर राधे जु के पारस्परिक सम्बन्धों को दर्शा रही है ! दोनों एक दूजे की खूबियों का ही गुणगान कर रहे हैं ! दोनों को एक दूजे से कोई शिकायत नहीं ! ऐसी आदर्श नातों की प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! किसी में भी हम दोषों की बजाय गुण ही देखें की सीख देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

तुम क्या जानो ऐ श्यामसुंदर
कैसे तुम बिन जीये जा रहे हैं
तुझे मिलने की उम्मीद लेकर
गम के आँसू पीये जा रहे हैं

                   जय श्री राधे कृष्णा

रचना-32

मत भूलो कृष्ण कन्हैया को
मत भूलो राधा रानी को
दो प्रेमासक्त प्रेमियों की
उस पावन प्रेम कहानी को
मत भूलो कृष्ण कन्हैया को

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

एक गोपी के भाव हैं आज की रचना ! कन्हाई की वँशी की मधुर तान को सुन गोपी यमुना पुलिन की ओर जाने को  उद्धत है ! उसके मनोभावों को रचनाकार मेरे भैया यूँ प्रकट कर रहे हैं …..कन्हाई की वँशी की.मधुर तान ….. हम सभी को बुला रही है …..घर के कामों को बीच में ही छोड़ …..मैं तो यमुना के तीरे जा रही हूँ …..जन्मों जन्मों  का मेरा …..सपना सच हो गया है…..मेरे संचित पाप कट गए हैं …..अब भाग्य उदय हुआ है …..श्याम के पास ….यमुना किनारे जा रही हूँ …..अभी  तक तो जीवन ….जहर का घूँट समझ ही जीया है …..दुनिया से डर डर दिन काटे हैं …..अब यमुना किनारे जा ….प्रेमामृत पीने का सौभाग्य मिला है ….. मुरलीमनोहर की प्रीत भी मनोहर है …..उस की वँशी की धुन …..बड़ी सुरीली ….सुध बुध बिसराने वाली है …..उसी का आनन्द लेने …..यमुना किनारे जा रही हूँ …..यमुना किनारे जा रही हूँ …..! रचना गोपी के कृष्ण प्रति आकर्षण और समर्पण को दर्शा रही है ! कृष्ण के सामने घर के काम मिथ्या हैं ! जन्मों के पुण्यों का फल कृष्ण दर्शन है ! ऐसी मनोहारी प्रस्तुति के लिए , रचनाकार मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कान्हा प्रति गोपी के प्रेम से सीख लेने की प्रेरणा के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

जमुना किनारे श्याम बंसरी बजा गया
प्रेम दीयां मारीयां नूं होर तडपा गया

                राधे कृष्ण , हरे मुरारी

रचना-33

कृपा करो मुझपर मेरी राधा रानी
शुरू तुम्हीं से खत्म तुम्हीं पर होय कहानी
जन्म जन्म के साथी हैं हम
एक दीया और बाती हैं हम
तेरी मेरी प्रीत ओ राधे बड़ी पुरानी
कृपा करो …….

(श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 मे से )

कृष्ण- राधे का विशुद्ध प्रेम जग जाहिर है ! ऐसा प्रेम , राधे की आत्मा कृष्ण के अंतर में है ! दोनों एक दूजे के नाम सुमिरम पे बलि बलि जाते हैं ! कन्हैया के इसी भाव को रचनाकार , मेरे भैया यूँ  बयां करते हैं …..मेरी प्यारी राधिके …..मैं तो तेरे नाम के बलिहारी हूँ …..उसके बाद उन भक्तों पर ….जो तेरा नाम सुमिरन करते हैं …..दुनिया मुझे भले ही …...जगतपति ….जगतपालक कहती रहे …..पर मैं तो तेरा चरणसेवक हूँ …...तेरे नाम की प्रीत का भूखा हूँ …..तुमसे तेरे ही नाम की भिक्षा मांगता हूँ….तेरी शक्ति से ही मैं सशक्त हूँ …...तेरी शक्ति के कारण ही …..मैं जग में सबको सुहाता हूँ …...तुम मेरी पूजा हो  और मैं तेरा पुजारी …..तुम मेरी इष्ट और मैं तुम्हारा उपासक हूँ …..सदा से मैं तेरे संग में ही हूँ ….. दुनिया हमें दो समझती है …...लेकिन हम तो एक आत्मा दो प्राण हैं …...इसलिए तुम मुझ से अलग कैसे हो …...मुझसे अलग कैसे हो …..हो ही नहीं ….हो ही नहीं …….! रचना कृष्ण के राधा प्रेम में सनी हुई है ! ऐसा अलौकिक , अहलादिक प्रेम , जिसकी कोई और मिसाल नहीं ! ऐसी प्रेमपूरित प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! आसार संसार के मोह को त्याग उस हरि से नेह लगाने की उनकी ताकीद के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

राधे तेरे चरणों की गर धूल ही मिल जाये
सच कहती हूँ मेरी तक़दीर बदल जाये

               कृष्णप्रिया श्री राधे

रचना-34

तेरी कठपुतली बनकर रहें , जगत में
तेरी कठपुतली बन कर , तेरी कठपुतली बन कर
जैसे नचाये वैसे नाचें , सदा तेरी वाणी को बाँचें
जैसे खिलाये वैसे खेलें तेरे इशारे सुख दुःख झेलें
शंकर का कोई रोल मिले या बना दे कंकर
तेरी कठपुतली ……

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

एक भक्त की गुहार है कन्हाई से आज की रचना ! संसार की मोह माया में फंसा जीव , अज्ञानतावश प्रभु को भूल भी जाता है , पर विनती कर रहा है भक्त कि तुम मुझे बिसार न देना , बल्कि मेरी रहनुमाई करते रहना ! भक्त के भावों को रचनाकार मेरे भैया यूँ व्यक्त करते हैं …..मेरे कन्हाई …..मुझसे अपने नेह की डोरी को…..कभी ढीली मत होने देना…..मोहे सदा अपना सहारा दिए रहना …..कहीं संसार के झमेलों में …..तुम्हारी बाँकी अदाओं को भूल जाऊँ …..मोहे यह डर लगा रहता है …..तुम भी मुझे कहीं भुला नहीं देना ….कभी भटक जाऊँ …..तुझे भूल जाऊँ ….तो झट मेरी बाँह पकड़ …..मुझे राह दिखा देना …..मेरी आपसे यह विनती है …..प्रार्थना है …..इस पर आप ध्यान जरूर देना …..तेरे प्रेम के भरोसे …..अपने जीवन की नैया …..भवसागर में छोड़ी हुई है …..तुम्ही खबैया बन …..इसे पार लगाओगे ….. तुम बिन मेरा कोई नहीं …..लाल …..पीले …..हरे …..गुलाबी….. रंग मुझे अब सुहाते नहीं …...तुम साँवले जो मेरे मन पर छाए हुए हो ….. साँवले पर कोई रंग चढ़े भी तो कैसे ?.....जिस रँग में यह तन मन रंगा गया है …..वो अब किसी भी ढंग से छूटेगा नहीं …..बल्कि और गहरा होता जाएगा …..गहरा होता जाएगा …..! रचना कृष्ण अनुरागी भक्त की विनती है अपने कन्हाई से कि वो अपनी छत्र छाया सदा अपने भक्त पर बनाये रहे , कभी भटक भी जाये तो उसे सुपथ पर ले आये ! ऐसी विनययुक्त प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! सुमार्ग पर चलने और भटकन में प्रभु में यकीन रखने की ताकीद के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

कृष्ण मेरी नैया उस पार लगा देना
अब तक तो निभाई है आगे भी निभा देना
भगवान मेरी नैया …..

             सृष्टिनियन्ता श्री कृष्णा

रचना-35

जब तक , तुम ना कहोगे कान्हा
तू मेरा मैं तेरा रे
तब तक तेरे दर पर मेरा
लगा रहेगा डेरा रे ! जब तक …..
बहुत रो लिया किये निवेदन
तड़प तड़प कर किया क्रंदन
हार ना मानी फिर भी , निष्ठुर
हृदय ना पिंघला तेरा रे ! जब तक …..

(श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से

सखीभाव में लिखी गई ये रचना एक भक्त के भाव हैं जो अपने मनमोहन कृष्ण का एक पल के लिए भी बिछोह नहीं  चाहता ! हरदम उस साँवली सलोनी सुरतिया और वँशी की मधुर तान में खोया रहना चाहता है ! रचनाकार , मेरे भैया की लेखनी से रचना की सखी  कह रही है …...मेरे साँवरिया ….मेरे मोहन ….अपनी मोहिनी सुरतिया दिखा ….मोसे ओझल मत हो ….मनोहारी वँशी की मधुर टेर दे …..मोसे दूर ना जा …..तड़पते मन को ….यूँ छोड़ कर न जा ….मोसे अपना नाता तोड़ ….यूँ अकेली छोड़ मत जा ….मैं हाथ जोड़ कर विनती करती हूँ ….ओ मेरे मनभावन  भँवरे रूपी कृष्णा …… इस मन का रस चूस यूँ तो न जा ….. मुझे भी अपने मन में बसा ले ….और इस संसार से निजात दिला ले….गले से नहीं लगा सकते तो …..श्री चरणों मे ही स्थान दे दो  ….शरणागति देदो …..आखिर मैं भी तेरी दीवानी हूँ ….. जन्मों जन्मान्तरों से तेरी चरण सेविका हूँ …..तभी से तेरे प्रेमामृत की पिपासा है मुझे ….. माना राधे जैसी भक्ति नहीं है मेरी …..मीरा सी ही मान ले …..मेरी मंज़िल तुम हो …...अब वो मंज़िल दिखा….. मुझसे दूर तो न जा ….दूर तो न जा ….! रचना एक भक्त की वेदना है , कन्हाई दरश दे अब ओझल हो रहे हैं ! भक्त की अनुनय विनय करती प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कृष्णप्राप्ति के लिए पहले प्रेम और फिर व्याकुलता ज़रूरी है , समझाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

मेरा दिल तो ले गए श्यामसुन्दर मैं कैसे जीऊँगी
मेरे मन मे उठी हिलोर सखी वृन्दावन जाऊँगी

                मुरलीमनोहर कृष्णा

रचना-36

मुझे छिपा लो अपने दिल में कान्हा मेरे प्राण प्रिये
कहे तुम्हारी राधा तुमसे करदो ये अहसान प्रिये
कान्हा मेरा मैं कान्हा की शोर मचाऊँ गलियन में
इतराती सी बृज में ड़ोलूँ हर लो सब अभिमान प्रिये
इसी गर्व ने मुझ को तुमसेे जुड़ा किया है बनवारी
कई बरस से सुनी ना मैंने हा मुरली की तान प्रिये

(श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

कन्हाई को मथुरा लेजाने के लिए अक्रूर जी आ चुके हैं और कन्हाई उनके साथ जाने के लिए , रथ पर चढ़ने के लिए उद्धत हैं ! राधे जी यह जान कर मानों स्वयं में नही हैं , कान्हा को जाते देख , राधे जी के जो भाव हैं , उन्हें रचनाकार मेरे भैया ने यूँ व्यक्त किया है …..छलिया …..मनमोहिना …..गोपाल …..दांव लगा कहाँ जा रहे हो ?.....ओ चार सौ बीसी ….मुझ से प्रेम बढ़ा …..दिल को विह्वल कर कहाँ चले ?.....हैरान….परेशान ….हम तो सन्न से रह ….वहीं के वहीं खड़े रह गए …..मूक से कर दिया…..आह तक न निकल पाई…..अचानक जीवन में कैसी अफरा तफरी ला दी ?.......कैसा वर्ताव करते हो ? ….चले हो निर्लज्ज …..हमारे लिए क्या सोचा ?......मेरी ही बुद्धि भृष्ट गई जो तुझसे …..मैंने नेह लगाया ….अब पछता रही हूँ …..कमबख्त बाँसुरी तेरी ने …..अलग कोई टोना किया है मो पर ….जिसे सुनते ही …..लोकलाज को छोड़ ….भाग चली आती हूँ …..मेरी मटकी भी फोड़ देते हो …..अब कुछ तो तरस खा …..निष्ठुर ….तुझसे हार कर मैंने एक बात तो सीखी है …..तुझसा चतुर कोई है नहीं …..कोई बात तो तुझ में है …..जो तेरी राधे तेरी दीवानी है ….तेरे लिए सब कुछ हार कर भी ….कोई नुकसान नहीं …..कोई हर्ज नहीं ……! रचना ग़मज़दा राधे के भाव हैं जिन्हें वो आवेश में कह तो गई है , पर अंत में सम्भल गई है , अपना प्रेमभाव दिखा दिया है ! राधेजु का भावावेश दिखाने के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! प्रेमविह्वल मन से अपने प्रेमधार के लिए  कटु शब्द निकलना भी अत्यधिक प्रेम ही की इंतहा है का ज्ञान देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

एक बार तो राधा बन कर देख ओ मेरे साँवरिया
राधा ये रो रो कहे , राधा ये रो रो कहे

                       जय श्री कृष्णा

रचना-39

दर्शनों से तृप्त तन मन हो गया
तुझको पाकर मस्त जीवन हो गया
दर्शनों से तृप्त तन मन हो गया
तुझको पाकर मस्त जीवन हो गया
बेवजह सी ढल रही थी ज़िन्दगी
तेरी खातिर व्यस्त जीवन हो गया

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

एक समर्पित भक्त की फरियाद है अपने कान्हा से आज की रचना ! प्रेम को ठुकरा अपने भक्त को भूल नहीं जाए , वो तो मोह माया जैसे विकारों में उलझ , भूल सकता है कान्हा तो उसको  राह दिखाता रहे ! उसके भावों को , रचनाकार मेरे भैया ने यूँ स्पष्ट किया है …..मेरे मनमोहिना ….मुझसे लगी अपनी प्रीति को तोड़ ….., मुझे संसार में भटकने के लिए अकेला नहीं छोड़ देना …...तुझ बिन मेरा कोई नहीं …..जग से तो मैं विरक्त हो चुका हूँ …..मैं तो विकारों ….लोभ….मोह….द्वेष ईर्ष्या….और माया में उलझा हूँ …..लेकिन तुम मुझसे रूठ नहीं जाना …..उम्र बीत गई है ….न तेरा नाम लिया …..न ही कोई दान ….और अब जब बुढापा सिर पर आ गया है …..तो तुम याद आ गए हो …. जीवन नैया मझदार में डोल रही है …..अब इसे तुम्हीं खिवैया बन पार उतारोगे …..एक एक कर सारे रिश्ते नाते  छूटते गए …..दरअसल नश्वर जग के नश्वर सम्बन्ध थे ये …..पर तेरा सम्बन्ध शाश्वत सनातन है ….अब प्रायश्चित में अविरल आँसुओं की धारा बह रही है …..तुम्हारी इंतज़ार में हूँ …..मैंने सूना है तुम तड़प में ….पसीज जाते हो …..पसीज जाते हो …..! रचना भक्त का भगवान से प्रेम और उसकी फ़रियाद को दर्शा रही है ! पछता रहा है *एक घड़ी बैठ हरि न जपया , बिरथा ही जन्म गंवाया रे साधो* ! अब अंत समय भगवान से ही विनती कर रहा है कि उसको सम्भाल लें ! ऐसी प्रायश्चित भरपूर प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! नाम सुमिरन , समय रहते करते रहो की सीख देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

एक घड़ी बैठ हरि भी न जपया बिरथा ही जन्म गंवाया रे साधो
जिस लकड़ी की तसबी बनी है उसी की मोहन माला रे साधो
जिसको तुम विस्मिल्लाह कहते वोही है मोहन प्यारा रे साधो

                   गोविन्द हरि , कृष्ण मुरारी

रचना40

झरने लगे नयनों से आँसू अब तो आँ मिलो मेरे श्याम
झड़ी लग गई हैअविराम अब तो आन मिलो मेरे श्याम
कहाँ कहाँ खोज प्रभु तुमको मन्दिर मस्जिद तीर्थ छाने
भटक भटक कर तुझे खोजते बीत गए कितने युग जाने
हार गया प्रभु माला कर ले जपते जपते तेरा नाम
झरने लगे ……

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )

कान्हा ने राधेजु को वँशी बजाना सिखा दिया है , अब वे भी वँशी की टेर से कन्हाई को बुला लेती हैं ! आज भी टेर दी है कान्हा के नाम की , लेकिन वो अभी पहुँचे नहीं ! राधेजु के इसी भाव को रचनाकार , मेरे भैया ने यूँ छुआ है …..कान्हा ….तुम्हे वँशी की टेर से तेरी राधे बुला रही है …..आ , यमुना के तीरे आकर मोकू मिल …..तुझसे किये वादे अनुसार ….मैं तो सभी से छिपती छिपाती …...पनघट पर पहुँच गई हूँ …..पर तुम तो कहीं दिखाई नहीं दे रहे …..कान्हा , ये भी तेरी कोई चाल तो नहीं …..जब से मोहे तूने मुरली बजानी सिखाई है …..तब से ही…..छलिया तुम कहाँ छिपे हो ...मैं तो बृज के गांवों के घर घर ….तुम्हें ढूंढ आई हूँ …..मैं तो तुझसे हार गई कन्हैया …..इधर तेरी मुरली मुझे अलग धोखा दिए जा रही है …..मेरी सदा तुम तक पहुँचाती नहीं है …..यह भी मेरी वैरन निकली….बहुत कोशिशें करलीं …..पर इसने कोई कमाल नहीं दिखाया…...कोई कमाल नहीं दिखाया …..! रचना , वँशी के कमाल की बात कर रही है जो सिर्फ कन्हैया ही कर सकते हैं , राधे को यह सुख कहाँ , कोशिशों के बाद भी सुर सही नहीं निकलते ! ऐसी भावविभोर करती प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! वँशी से टेर ना निकाल पाने पर ,  राधेजु की व्याकुलता दिखाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

दे दे राधे बंसरी मेरी काहे को सतानी ऐं
छड्ड खैहडा श्यामसुन्दर लकड़ी पुरानी ऐं

           मुरलीमनोहर कृष्णा

रचना-41

तुम्हें ढूँढते हैं यहां लोग सारे
बता दो बता दो कन्हैया कहाँ हो
तुम्हें देखने को तरसते हैं नयना
हमें भी बुला लो जहां हो जहां हो

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )

भक्त की अभिलाषा है कृष्ण दीदार की ! गर साक्षात प्रकट हो दीदार नहीं दे सकते तो कम से कम सपने में ही मिल जाएं ! भक्त के इसी भाव को रचनाकार मेरे भैया ने यूँ प्रस्तुत किया है …..कान्हा …..अगर साक्षात दर्शन नहीं दे सकते …..तो सपने ही में आ जाओ …..मुझ से डरो घबराओ नहीं …..मैं तो अदना सा सेवक हूँ तुम्हारा ? …..बलि ….. भस्मासुर तो नहीं हूँ ….जो तुम्हें पाताल में ले जाऊँगा …..या सिर पर हाथ रख भस्म कर दूँगा … न ही किसी वचन को पूरा करवाने के लिए बाँधूँ गा…....न ही सुदामा सखा की तरह …..कोई पोटली तन्दुल की है मेरे पास…..जिसकी एवज में कुछ माँगना है मुझे …..बस सिर्फ दरस करने हैं तेरे…...कुछ न भी दोगे …..तब भी सुमिरन करता रहूंगा …..गोपी भी तो नहीं हूँ मैं …...जो मुझे मिलने से शर्माओ तुम …..सामने हो बस इतना बता दे …..तुझे रिझाते कैसे हैं …..ताकि तुम दर्शन दे दो ….कैसी तड़प होती वो ….जिससे तुम पसीज जाते हो ….यह रहस्य मुझे बता दे ….वादा है मेरा इस रहस्य को किसी को ….बताऊंगा नहीं …..तेरा अदना सा प्रेमी हूँ ….मुझे इस तरह निराश तो ना कर …..अपने दुश्मन कंस ….रावण ….समझ कर ही दरश दिखा दे ….वे भी तो ….तेरे खौफ से ही सही …..तुझे किसी पल बिसारते ना थे …..या अपना सखा अर्जुन मान ….गीता की तरह कोई ज्ञान ….मुझे भी दे ….ज़िन्दगी को सँवार दे …..मुझे तो तेरे दर्शन की तलब है प्यारे …..भले ही हिरण्यकश्यप को सँहारने वाला …..नरसिंघ जैसा….ही बन कर आजा ….कैसे भी हो ….किसी भी रूप में दर्शन दे दे …..प्रत्यक्ष नहीं सपन में ही दर्शन दे दे …..सपने ही में दर्शन दे दे …..! रचना मतवारे भक्त की कान्हा से मिलने की चाहत है ! दीदार करने चाहता है , भले ही सपन में ही सही !  अटूट लगन से ही पसीजते हैं कन्हाई ! ऐसी प्रेमपगी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! प्रभु मिलन की उमंग मन मे भरने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अखियाँ प्यासी रे

               करुणाकर श्री कृष्णा

रचना-42

तू मुझमें मैं तुझमे राधे एक दूजे में समाए
भांति भांति की लीला रचने दुनिया में हम आये
हम दोनों हैं एक कोई ये , एक विरला ही जाने
अलग अलग तन होने पर , भी एक हमें पहचाने
एक शक्ति के भाग हुए दो पाया मानव रूप
मगर वास्तव में है अपना नित्य एक स्वरूप

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

कन्हैया कंस संहार के लिए मथुरा गमन किये हुए हैं ! राधेजु तो उन्हें विरह वेदना के अलाप भेजती रहती हैं पर कन्हाई भी इस वेदना से अछूते नहीं ! उन्हें भी राधेजु से बिछोह तड़पाता है ! आज वे अपने मन की वेदना राधेजु से कह रहे हैं जिसे रचनाकार मेरे भैया ने बहुत सुंदर शब्दों से सुसज्जित किया है ….राधे ….मेरी प्रिया ….तुम नहीं जानती ….तुझ बिन मैं कितना उदास हूँ …..तुम बिन ये जीवन ….जल बिन मीन की तरह है  …. एक एक क्षण तुझ बिन मोहे …..युगों समान लग रहा है …..तुम्हारी याद है कि दिमाग से निकलती ही नहीं …..ऐसा वक्त भी आएगा जब पुनः ….हम दोनों मिलेंगे …..ये समय हम दोनों के लिए ही …..कष्टकारी है ….. ना तुम मुझसे दूर हो और ना तुम मुझसे …..फासलों की दूरी तो दूरी नहीं …..दिलों से तो करीब हैं ना …..मोहे बृज की गलियों …..कुञ्जों …..यमुना पुलिन ….अपनी गैयन …..वँशी ….और बृज रज की बहुत याद आती है ….तुम सङ्ग मधुवन में घूमना ….रास रचाना …..याद आता है ….और फिर मोर …..तोते ….हँस ….और बृज जैसी बयार यहां मथुरा में कहाँ है ?.....मेरी स्वामिनी ….मुझ पर यकीन कर …..एक दिन मैं ज़रूर बृज में आऊँगा …..और तेरे श्री चरणों की रज के दर्शन करूँगा …..कभी न कभी हमारा यह ख्वाब पूरा ज़रूर होगा ….तेरे मेरे दरम्यान ये दूरी …..सजा सी ही लगती है ….सजा सी ही लगती है …..! रचना कृष्ण राधे के बिछोह की व्याकुलता को दर्शा रही है , राधे के आराध्य ओर कृष्ण अपनी स्वामिनी से दूर जो हैं ! ऐसी मार्मिक प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! बिछोह का कष्ट हमारे आदर्श , हमारे आराध्य को भी सहना पड़ा , समझाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

मेरा दिल तो ले गए श्यामसुन्दर मैं कैसे जीऊँगी
कैसे जीऊँगी सखी मैं कैसे जीऊँगी
मेरे मन मे उठे हिलोर सखी वृन्दावन जाऊँगी

               जय श्री राधे कृष्णा

रचना-43

मुझ पर रखो भरोसा राधे इक दिन आऊँगा
तेरी चरण धूल के राधे दर्शन पाऊँगा
कभी सत्य भी होगा राधे अपना ये सपना
तेरी मेरी दूरी राधे कड़ी सजा सी लगती है

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )

राधे कृष्ण का प्रेम अगाध है , अलौकिक है अद्वितीय है , दोनों का रूप एक है , पूजनीय हैं ! एक दूजे की आत्मा हैं , उनका बिछोह हो नहीं सकता ! फासला ज़रूर रहा है दोनों में पर दिलों की दूरी नहीं ! यही बात कन्हाई राधेजु को समझाते हैं ! उनके इसी भाव को रचनाकार मेरे भैया ने शब्द रूप दिया है …..मैं तुम से दूर हूँ …..मेरी प्राणेश्वरी राधे ….यह हो ही नहीं सकता ….हां ….साथ नहीं रह पाता ….यह भी सच है ….शारीरिक बिछोह तो बिछोह नहीं ….तुम सदा सर्वदा मुझे अपने नयनों में …..अपने इर्द गिर्द महसूस करती हो ….तुम रोती नहीं इसी भाव से …..कहीं मैं आँसू बन …..तेरी आँखों से बह न जाऊँ …...जब भी मेरे लिए तुम सोचती हो ….तुम्हारे सामने ही तो होता हूँ …..इस तरह मैं भी तो प्रेम की रीति ही निभाता हूँ …..मैं गर जताता नहीं इनका अर्थ यह नहीं …..मैं तुझ से प्रेम नहीं करता …...स्वयं भी अधीर रहती हो ….मुझे भी अधीर कर देती हो …..समझो , मैं तो तेरे दिल में बसा हुआ हूँ बृजरानी …..इतना दुःखी नहीं रहते …..सम्भालो स्वतः को …..मैं सच्चे प्रेमियों के सदा अंग सङ्ग रहता हूँ …..मोसे सच्ची प्रीति रखने वाले ही मुझे प्राप्त  होते हैं …...ऐसी कोई जगह बता दे …...जहां मैं नहीं समाया हूँ …..जहां मैं नहीं समाया हूँ ……! रचना कृष्ण की सर्वव्यापकता को दर्शाते हुए राधे रानी को समझा रही है कि कृष्ण का कभी किसी से बिछोह नहीं होता ! अपने सच्चे प्रेमियों को वो प्राप्त होता है ! ऐसी प्रेमपगी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कान्हा से प्रीति सच्ची निभाओ का संदेश देने के लिए उन्हें हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

मैं खड़ी उडीकां राह मेरे घर श्याम आवेगा
जे श्याम ना आया कोई पैगाम आवेगा

           मनहर मुरलीधर

रचना-44

तेरे दर्शन को मेरे घनश्याम ये आँखे तरसती हैं
कभी तो भेंट होगी सोचकर रह रह बरसती हैं
बड़ा व्याकुल सा रहता हूँ तुम्हारी याद में खोया
अजब से नशा है लगता नहीं जागा हूँ या सोया
नशा जिसका नहीं जाता ना जाने कैसी मस्ती है
तेरे दर्शन को मेरे ……

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

कृष्ण के रूप लावण्य और सौंदर्य से कौन प्रभावित नहीं , ऐसा रूप जो मन को भा गया , स्वतः आसार जग से किनारा कर गया ! उसी में खोया , कभी टेढ़ी चितवन , तिरछी नयन कटारी रास नृत्य और शहद से मीठे बोल , अब भी रसिकों की चैन लूटे हुए है ! ऐसे ही भक्त के भावों को रचनाकार मेरे भैया ने यूँ प्रारूप दिया है …...कन्हाई …..तुम्हारे नाम की खुमारी सदा चढ़ी रहती है …..कभी नहीं उतरती ….उसी में तेरी अनोखी रासलीला को निहारता रहता हूँ …..मेरे घनश्याम …..इस कलियुग में भी तेरी मधुर वँशी की टेर …..मेरे कानों में गूँजती रहती है …...जिसको भी ये सदा सुन गई ….तुझे ढूँढने की फिराक में लगे रहते हैं …..घर के सारे काम छोड़ …..राधे भी तो तलाशती हुई …..दिखाई पड़ती है …..वही गीत ….वही संगीत …..सभी में गोपियों जैसा प्रेम भाव …. राधा सी दीवानगी …..तुझ सा मनमीत भी तो है …..पर दिखाई तब पड़ता है …..जब अपना मन पावन  वृन्दावन बना हो …. इस कलियुग की गोपी ….भक्त के सपने सार्थक हो गए …..जब अपने मन के मंदिर में …..कृष्ण कन्हाई प्रेमामृत पान करने के लिए …..प्रकट हो गए …. सौभाग्य है ऐसे रसिकों का …...जिन्हें प्रेमवतारी कान्हा बिन किसी मोल …..दर्शन देता है …..दर्शन देता है …..! रचना मन को वृन्दावन बनाने को प्रेरित करती है , प्रेम रस में डूबने से कृष्ण अब भी राधे और गोपियों सङ्ग रास रचाते मिलते हैं ! ऐसी माधुर्य प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! स्वच्छ और समर्पित भाव से कान्हा की प्राप्ति होती है , का ज्ञान देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

जरा वृन्दावन जाकर देखो श्याम वँशी बजाते मिलेंगे
सङ्ग में होंगी राधे प्यारी श्याम झूला झुलाते मिलेंगे

              बृजनंदन मेरो कन्हैया

रचना-45

मेरे दयालु मेरे कृपालु मेरे सहारे मनमोहन
ओ जग के दाता , भाग्य विधाता दुनिया से न्यारे मोहन
मेरे दयालु ……
हे करुणा वरुणालय ठाकुर सुन लो मेरी करुण पुकार
जग की विपदाओं से होकर , त्रस्त आ गया तेरे द्वार
नहीं चाहिए जन्म जन्म का चक्कर मेरे प्राणपति
मेरे दयालु …..

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से ) 

कवि हृदया रसिक के भाव हैं आज की रचना ! दिल-ओ-जान से चाहने वाला भक्त , कन्हैया के इलावा कुछ सोचता भी तो नहीं है ! हर समय कान्हा की वँशी की गूँज वो अपने कानों में गूँजती अनुभव करता है ! इस से आगे कन्हाई की और भी लीलाएं मन में कौंधती रहती हैं , उन्हीं के अनुभव को रचनाकार मेरे भैया यूँ बयाँ करते हैं …...कान्हा …..तेरी वँशी की मधुर टेर की गूँज कानों में पड़ते ही …..और भी लीलाएं आँखों के सामने आने लगती हैं …...,और वे सिनेमा की तरह परत दर परत आगे बढ़ती जाती हैं …..कलम तेरे अलग ही फसाने लिखती …..महसूस करने लगती है …..जैसे कवि भी गोपियों में सम्मिलित हो गया हो …..मन में तड़प है …..दर्द है …..और विरहवेदना भी …..बस , इच्छा सिर्फ तेरे दर्शनों की ही है …..सपने में तो दीदार किया था …..अभी तक आँखे मल मल देखता हूँ …...शायद तू अब भी दिख जाए …..तोसे लगन और प्रीत ऐसी बढ़ती चली जा रही है…..कि स्वयं को राधे मान ही ….मानों रास में नृत्य कर रहा हूँ ….. और मेरे साथ तुम कृष्ण ….नाच रहे हो …..कृष्ण तुम नाच रहे हो …..! रचना समर्पित भक्त के भाव हैं , स्वतः कान्हा सङ्ग रास लीला की लगन वही दृश्य दिखाये जा रही है ! ऐसी माधुर्य रस से परिपूर्ण प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! स्वयं को , गोपी बन गोपियों सङ्ग रास लीला दिखाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

लगन तुझसे लगा बैठे जो होगा देखा जाएगा
तुझे अपना बना बैठे जो होगा देखा जाएगा

                    जय श्री कृष्णा

रचना-46

कान्हा तुझे वँशी में राधा पुकारे
आजा आजा आजा कान्हा यमुना किनारे
             कान्हा ……
छुपती छुपाती मैं पनघट पे आई
वादा किया क्यूँ दिया ना दिखाई
ये भी कोई चाल है क्या सखा रे
            कान्हा ……

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से ) 

राधेजु कन्हाई की स्वामिनी , उनकी आराध्य रही हैं ! कन्हाई  वँशी की मधुर टेर से राधेजु को पुकारते और वे भी घर के समस्त काम छोड़ कान्हा से मिलने चली आतीं ! रास रचाते और बतियाते ! राधे जु कन्हाई की वँशी ले कई बार बजाने की कोशिश करती पर सुर न निकलते ! एक दिन कान्हा से कह ही दिया कि मोहे वँशी बजाना सीखा दे ना ! राधे जु के इसी भाव को रचनाकार , मेरे भैया यूँ प्रकट करते हैं …..कान्हा …..मुझे भी वँशी बजाना सीखा दे …..सात सुर निकालना मुझे भी सीखा दे …...मुझे आ जाये वँशी बजाना …...सब से पहले तो तुझे ही  रिझाऊँ गी …...और तुझसे वाहवाही लूटूँगी …...मुझे भी वँशी बजा औरों को तड़पाना सीखा दे …...तेरा नाम ले मैं भी तुझे बुलाया करूँ …..मेरी वँशी सदा कान्हा कान्हा नाम ही बुलाया करे …..मुझे अपना नाम बोलना सीखा दे ना …..तुम अपना नाम सुन रुक ना पाओ …..दौड़े दौड़े चले आओ …..वँशी से मुझे जादू सा करना सीखा दे …..जादू सा करना सीखा दे …..! रचना राधे के वँशी बजाना सीखने को लेकर है ! राधे चाहती हैं कन्हाई भी अपना नाम टेर में सुन भागे चले आया करें ! ऐसी प्रेमपगी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! राधे की मिन्नतों का आनन्द दिलाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

देदे राधे बंसरी मेरी काहे को सतानी ऐं
छड्ड खैहडा श्यामसुन्दर लकड़ी पुरानी ऐ

             जय श्री राधेरानी