3

परिवर्तन

 परिवर्तन


तुम मेरे द्वार आए, किन्तु,
अकारण ही मैंने,
अपने द्वार बंद कर लिए.
मुझे अपने ही भवन में सताने लगे
अपने ही साए
अपनी ही सांसों से घुटने लगा मेरा दम
प्रातः भी हुई, दोपहर भी  हुई , और हुई शाम भी
किन्तु मेरे लिए था
केवल रात्रि का तम
अन्धकार में भटकते भटकते
अनजाने ही मैंने द्वार खोल दिए
मैं प्रकाश का अभ्यस्त भी ना हो सका
कि तुम मेरे अन्दर आ गए
और मैं बाहर निकल पड़ा
तुम्हें खोजने
अब प्रकाश कि भटकन शुरू हुई
मैं भवन के चरों और खोज रहा था तुम्हें
कि मैंने देखा
मेरे भवन में प्रकाश हो रहा है
कोई दीपक जलाये बैठा है
मैं अन्दर गया और देखा , तुम ही थे
हाँ मैंने तुम्हें पा लिया
और अपने  भवन का द्वार
सबके लिए खोल दिया


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1

आकांक्षा

आकांक्षा
मैं नहीं चाहता जीना
उस पत्थर कि तरह
जो चौराहे पर पड़ा
ठोकरें खाते खाते मिल जाता है रेत में
या जो वेगवान समय के
निर्झर पथ पर पड़ा
घिस जाता है
मेरी चाह है मैं आ सकूँ तुम्हारे काम
इसलिए मुझे छील डालो छेनी लेकर
मैं कुछ नहीं  बोलूँगा
और कुछ नहीं बोलूँगा
जब बन जाऊँगा
मील का वह पत्थर
जो राह दिखा सकेगा
भटके राही को
सदियों तक
या , तुम्हारी आत्मा को
शुद्ध करने वाली
एक मूर्ति
पूजा की.



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