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कृष्ण मॉधुर्य पार्ट 1 उमा सारपाल भाग 5

रचना-96
दर्पण- सा गर स्वच्छ ना होगा हृदय तुम्हारा
देरी तो हमसे है कान्हा तू तो हर पल मिला हुआ है
दूरी तो हमसे है कान्हा तू तो हर पल मिला हुआ है
वो है नेट वर्क के जैसा जो प्रति पल चालू रहता है
हम मोबाइल बेसमेंट के जो धरती भीतर रहता है
तुरंत मिलेंगे सभी कनेक्शन धरती से बाहर तो आ
सभी मिलेंगे रस्ते भी गर नेविगेशन मिला हुआ है
       ( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी )

“ स्वच्छ मन में ही प्रभु का निवास है “ को चिरतार्थ करती है आज की रचना ! विकारों की मैल प्रभु को कदाचित पसंद नहीं ! उसे , कन्हाई को , अपने हृदय पटल पे असीन करने के लिए , मन को शुद्ध करना बहुत आवश्यक है ! इसी सम्बन्ध में रचनाकार मेरे भैया , हमें समझा रहे हैं…..गर तेरा मन शीशे की तरह ….साफ न होगा …..तो तेरा गोविन्द तुझ से प्रेम कैसे करेगा…..मन गर विकारों की गंदगी से…...कलुषित है तो मन मंदिर में …..बैठाने के लिए उसे कैसे बुलाओगे…..झूठ , कपट , द्वेष , ईर्ष्या और अहं …..उसे कतई पसंद नहीं…...उसे तो सरल और भोला भाव ही भाता है…...समर्पण और सरलता से रीझ जाता है…..स्वच्छ मन …..सरल स्वभाव से पुकारने …..पर दौड़ा चला आता है…....इंतज़ार कैसी कर रहे हो…..विकारों की मैल धुल जाने पर…..उसे अपने अन्तस में ही पाओगे …..कहीं बाहर तो वह है नहीं ……# मन विच्च मनमोहन बस लै जँगलां च की टोलना # …... स्वच्छ मन में उसका अनुभव होने लगेगा…..इसके लिए गुरु प्रदत्त…...नाम मंत्र…...सुमिरन  बहुत आवश्यक है….. जब तक सुमिरन…..नामजाप नहीं किया ….स्वयं को मानव नहीं…..दानव ही समझो…..गुरु प्रभु प्राप्ति का मार्ग बताने में…...सहयोगी होता है…...वही गुरुमंत्र रूपी…..पतवार तुम्हारे हाथ थमाता है…...जिससे प्रभु प्यारे के दर्शनों का….लाभ प्राप्त होता है…….इसी नाम मंत्र …..भक्ति से तेरे …..कलुषित पापकर्म कट सकेंगे …..तेरीे धन दौलत का वो मोहताज नहीं….. तुझे धनी बनाने वाला …...भला तुझ से क्या माँगेगा….तुलसी दल और केले के छिलकों पर रीझ जाने वाले……..भक्त वत्सल को…. तो तेरा निर्विकार प्यार चाहिए …...निर्विकार प्यार चाहिए ! रचना प्रभु प्राप्ति के लिए निर्मल मन और सुमिरन पर ज़ोर दे रही है ! स्वच्छ मन ही उसका बसेरा है ! ऐसी ज्ञानप्रद प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! मन को निर्विकार रखने की उनकी शिक्षा के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

नामदेव वांगूं इक दूध दी कटोरी नाल
देवकी यशोदा वांगूं भक्ति दी डोरी नाल
खिच्च पाके उहनूं घर च बुला लै
जँगलां च की टोलना , जँगलां की टोलना
मन विच्च मनमोहन बसा लै जँगलां च की टोलना !

            मेरा मनमोहन , मदन मुरारी

रचना-97
            जाओ जाओ जाओ स्वामी
            श्याम सखा से मिलने जाओ
द्वारपालों से कहने सुदामा लगे
श्याम से कहदो बचपन का यार आ गया
                       द्वार पर है खड़ा जिद पर है अड़ा
                        श्याम से कहदो बचपन का यार आ गया
देखकर के सुदामा की काया सकल
हो गया द्वार पर बैठा रक्षक विकल
                           कौन है श्याम कैसे उन्हें जानता
                            तू कहाँ से यहाँ पर गंवार आ गया
कृष्ण सुदामा मैत्री की लीला कथा है आज की रचना ! दोनों की संदीपनी ऋषि के गुरुकुल में मित्रता हुई , तदन्तर कन्हाई द्वारकाधीश हो गए , सुदामा दीनहीन निर्धन ही रहा ! भार्या सुशीला ने सुदामा को समझाया कि कृष्ण , आपके मित्र , द्वारकाधीश हैं , उनसे जाकर अपनी व्यथा सुनायें , वो आपकी सहायता ज़रूर करेंगे ! इसी प्रसंग को रचनाकार मेरे भैया ने बहुत सुंदर शब्दों से यूँ शिंगारा है …..पतिदेव …..स्वामी …..अपने मित्र कृष्ण से मिलने जाएं …..वे आपकी व्यथा सुन आपकी सहायता ज़रूर करेंगे …..उनसे बतादो ना आप कैसे गरीबी में दिन काट रहे हो …..आपके बच्चे कैसे रोटी के लिए तरसते हैं …...आपकी झोंपड़ी पर छत के नाम पर छप्पर तक नहीं है ….आप जाईये और उन्हें दान के पुण्य की कथा सुना …..दान के लिए प्रोत्साहित करें …..कृष्ण आपके मित्र हैं ….. वे आपकी अवश्य मदद करेंगे …..अधिपति होते हुए आपका सहारा बनेंगे …..वे जगन्नाथ हैं जग का पेट भरने वाले …..उनके लिए गरीबी घटाना क्या मुश्किल है …..उनसे यह भी जानें आप से ऐसा कौन सा नीचकर्म हुआ …... जिसके बदले हम गरीबी भोग रहे हैं …..मैं पड़ोसिन से तीन मुट्ठी तन्दुल …..चावल…..मांग कर ले आई हूँ …...यही हमारी ओर से उनके लिए तोहफा है और यही आपकी ओर से …...प्रणाम की एवज में दी जाने वाली राशि  …..वो घट घट की जानने वाले कृष्ण कन्हाई …..स्वयं ही हमारी गरीबी का अंदाज़ लगा लेंगे …..उन्हें कहने की तो कोई ज़रूरत नहीं …..वे आपके मन की जान लेंगे…..मन की जान लेंगे …..! रचना अन्तर्यामी कृष्णा का गुणगान कर रही है , उसे कोई कष्ट बताने की ज़रूरत नहीं , भक्त के भाव को समझ लेता है , बशर्ते आपकी भावना शुद्ध हो , समर्पित भाव हो ! ऐसी प्रेमपगी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कन्हाई से सच्ची प्रीति रखने को प्रेरित करने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष!
अरे द्वारपालों कन्हैया से कहदो
दर पे सुदामा गरीब आ गया है
भटकते भटकते ना जाने कहाँ से
महलों के इतना करीब आ गया है
               मेरो भक्तवत्सल कन्हाई

रचना-98
जिसको दुनिया ठुकराती है वो मेरा प्यारा होता है
मीत बना मनमीत मेरे मत बिसरा देना
शरण तुम्हारी आया हूँ मत ठुकरा देना
धन्य भाग जो तुम ने मुझको मीत बनाया
एक अभागा उठा प्रेम से गले लगाया
कभी जुदाई का मुझ को अब दुःख न देना
मीत बना मनमीत …….

          ( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी )

संसार मे तरह तरह लोग हैं ! कुछ ऐसे हैं जो धन लिप्सा , ऐश ऐश्वर्य को ही जीवन का ध्येय मानते हैं ! प्रभु से विमुख , दुनियादारी , मोह माया में उलझे स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं ! संसार से विरक्त , प्रभु को कर्ता मान , उसी की रज़ा में रहने वाले , उन्हें भाते नहीं , ऐसे भक्तों को प्रभु , निज जन मान अपना आश्रय देते हैं और यही लोग परमेश्वर को भाते हैं ! उन साधकों के विषय मे रचनाकार मेरे भैया यूँ कहते हैं …...जग की नज़र में जो विमुख हैं…..दुनिया भले ही उन्हें पसन्द न करे …....ठुकरा दे …...मगर मोहे ऐसे विरक्ति ही पसन्द हैं…..आम लोगो जैसे नहीं …..उनमें विशेषता होती है …...जो मेरी शरणागति हो जाता है …...मेरी रज़ा में रहता है …..उसे मैं भी पूर्ण आश्रय दे देता हूँ …..और मुझे उस पर बड़ा मान होता है …..मेरा प्रिय होता है वो …..ऐसे वैष्णव के लिए मेरे द्वारे …...सदा खुले रहते हैं …….ऐसा प्रेमीजन  प्रेमभाव से मुझे …..पत्र फूल ,जल भी चढ़ाता है …...नित्य प्रति नियम से मेरी …..पूजा अर्चना करता है …..प्रेमभाव का ही भूखा हूँ मैं ……..भक्त भले ही स्वयं को .मेरा दास समझता रहे …...लेकिन मुझे वह अति प्यारा होता है …...जो समर्पित भाव से अपना सर्वस्व मुझे अर्पित कर देता है …...मैं भी उसे शरणागति दे…..उससे कोई कृपा छिपाता नहीं हूँ…...उसे भजन सुमिरन से मालामाल कर देता हूँ…... उसे भव से पार करने का ज़िम्मा मेरा होता है …..दुनिया से तिरस्कृत , जगत को भले ही न भाये ….पर वही मेरा हरमन प्यार होता है …...जिसने मेरी शरण ली …...मुझ में निष्ठा रख …..अपनी जीवन डोरी मेरे हाथ मे दे दी …..अर्जुन हो या सुदामा …...उन जग में हारे हुओं को …..जीत दिलाता हूँ …..जीत दिलाता हूँ ……भव पार कराता हूँ ……! रचना प्रभु द्वारा प्रेमी जन की रक्षा , उसकी अपार कृपा का वर्णन कर रही है ! प्रभु को समर्पित , उस की रज़ा में रहने वाले ही भाते हैं ! उसको कर्ता मान , हर काम उसकी सेवा समझ ही करें ! ऐसी प्रेम पूरित और सर्वस्व उसीको समर्पित कर देने की प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! जीवन की डोरी भगवान के हाथ छोड़ देने की सीख के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

मुझे है प्रेम ईश्वर से जगत रूठे तो रूठन दे
सिर्फ ईश्वर की भक्ति में यह सब छूटे तो छूटन दे
भाई बन्धु और सुत दारा , यह कुल है लाज लोगों की
प्रभु का भजन करने में अगर छूटे तो छूटन दे
मुझे है प्रेम ……

          हे गोविन्द हे मनमोहना

रचना-99
                   ईश्वर उवाच
प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर प्रभु को नियम बदलते देखा !
अपना मान भले टल जाये जन का मान न टलते देखा !
जिनका ध्यान विरंचि शम्भु सनकादिक से न सम्भलते देखा !
उनको ग्वाल सखा मण्डल में , लेकर गेंद उछलते देखा !
जिनकी वक्र भृकुटि के भय से सागर सप्त उबलते देखा !
उनको ही यशोदा के भय से अश्रु बिंदु दृग ढलते देखा !!

आज की रचना भक्त की अनुनय विनय नहीं , बल्कि भक्त पर प्रसन्न हुए प्रभु का वरदहस्त , आशीर्वाद है ! अपने भक्त का मान बढ़ाने और उसे अपना अभिन्न अंग मानते हुए , प्रसन्न हो , अपने साधक के आगे , विनम्र हो , जो वरदान दिया है , उसे रचनाकार , मेरे भैया , ने इस तरह स्पष्ट किया है.....वत्स...मैं तेरे भाव से....अति प्रसन्न हूँ....समर्पण भाव से....तुम मेरे शरणागत ...हो गए हो....विमुख ....विरक्त ....हो गए हो....संसार से....अब तो मुझे....तुझ को अपनाना ही होगा....बहुत तरह से.....तेरा मेरे प्रति प्रेम.....परखता रहा हूँ .... धैर्य....लगन....और आस्था में....तुम सफल हुए हो.....इसलिए अब तुझे.... तू मेरा .....का सम्मान देता हूँ ....जिस तरह....अपनी खुदी को मार....अश्रुपूरित नेत्रों से....मुझे हर पल...... स्मरण करते रहे हो....मैं तो तेरे इस भाव का..... कर्ज़दार ही हो गया हूँ ....देखता रहा हूँ....कैसे मुझ पर....बलि बलि जाते...रहे हो....मैंने हर कसौटी पर....तुझे परखा वत्स....तुम सफल हो गए हो....अब तो मुझे भी.....तुझे अपनाना ही होगा....तुम भक्ति भाव में....पूर्ण हो...सांसारिक लिप्सा को....त्याग चुके हो....वैराग्य हो गया है तुझे....सांसारिक बन्धनों ने....बहुत फंसाने की ....कोशिश की तुम्हें....लेकिन तुमने....मेरे लिए....किसी की परवाह नहीं  की....तूने मेरे लिए....सर्वस्व न्योछावर.... कर दिया ....अब बारी मेरी है.....मैं भी अब तेरा  हूँ....तुझे प्राप्त हो गया हूँ.....अपनी मनोबांछा ....पूरी कर मेरे अपने....तूने जप .....तप....और साधना से.....मेरी प्राप्ति कर ली है....अब तुम मुझ में....समाहित मेरे ही अंश हो....देखना....यह संसार....यह भक्त जन .....कैसे तुझे .....सर आँखों पर बिठाते हैं....कितनी तेरे लिए....उनके मन में...श्रद्धा होगी और....तुम उनके आदर्श होंगे....आदर्श होंगे...! प्रभु प्रेमी , सच्चे श्रद्धालु के भाव से प्रसन्न भगवान भी द्रवित हो जाते हैं , रचना यह सन्देश दे रही है ! राह तो मिल ही गई है क्यों न हम भी इसी राह के बटोही बनें ! ऐसी सुंदर , भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! भक्ति मार्ग पर लाने के उनके यत्नों के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक मांगलिक शुभाशीष !

प्रेम के बन्धन में माधव में बन्ध गए , प्रेमियों ने जो बनाया बन गए !
जान मीरा की न राणा ले सका नाग काले से नारायण बन गए !....प्रेम के....
भाव तुलसीदास का पूरा किया , छोड़ मुरली धनुषधारी बन गए ! प्रेम के.....

                हरे कृष्ण गोविन्द  हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवाय !

रचना-100
अहंकार ना भक्ति का भी करना प्यारे
भाव के भूखे हैं भगवन भाव मन में लाइये
अश्रु का उपहार देकर बोलिये प्रभु आईये
              आईये प्रभु आईये
वो नहीं है दूर तुझ से ढूँढना  बेकार है।
है तुम्हारे मन के अंदर वो तुम्हारा यार है
साँवरे के प्यार में बस बावरे हो जाइये
                आइये प्रभु आइये

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य में से )

निरहंकारी जीवन जीने की प्रेरणा दे रही है आज की रचना ! सब कुछ जीव को प्रभु प्रदत्त है सिर्फ गर्व ही है जो उसके अपने मन की उपज है और यही अहं मनुष्य को गर्त में ले जाता है ! इसी अभिमान से सावधान करते हुए रचनाकार मेरे भैया यहां तक समझा रहे हैं ...... …..अपनी भक्ति का तुम अहं मत करना …..तुम से बढ़ कर भी जग में बहुत से भक्त हैं …..सुनो …..दान कर रहे हो तो …..निरभिमानी होकर ऐसे गोपनीय करो …..एक हाथ दान करे …... दूसरे हाथ को पता भी न चले …..कोई चर्चा नहीं कोई दिखावा नहीं …...किसी की मदद कर दी …..उसे भूल जाओ …..उसकी चर्चा में भी …..अपने मुँह मियाँ मिट्ठू नहीं बनते रहो …..अपना ही गुणगान न करते रहो …...दया पात्र को नीचा दिखाने की …..अहसान जताते रहने की …..प्रवृत्ति भी ठीक नहीं …..सुमिरन करते हुए मन का मनका घुमाओ …..तल्लीन होकर भजन करो …..आडम्बर छोड़ …..प्रभु में मग्न होकर …..ऐसी मस्ती में रहो …..साथ वाले को भी तेरे सुमिरन का पता न चले …..ऊँचे ऊँचे बोल …..औरों को चुप रहने की हिदायत …..कर भक्ति सिर्फ दिखावा है …..गर्व है ….जो भी काम करते हो …..प्रभु को समर्पित करते जाओ …..कर्ता वही है ….उसकी सेवा के नाम पर ही हर काम करो …. तुम्हारी इस सेवा को भी …..अंतर्यामी प्रभु ही जानें …...दुनिया नहीं …..अभिमान में आ अपना गुणगान न किये जा …..अहंकार प्रभु को बिल्कुल भी नहीं भाता ….अहंकार वश जो भी काम होगा निष्फल होगा …..अहं में की भक्ति भी निष्क्रिय हो जाएगी …..भक्ति तो सभी करते हैं …..पर मन मे भक्ति का अभिमान करते हुए …..जताते भी रहते हैं …..यह एकार्थ है…..एकार्थ है …..! रचना किसी भी कर्म को प्रभु सेवा मानती हुई विनम्र , विनीत भाव मे रहने की ताकीद है ! अभिमान पतन का सूचक है इसे त्यागने की हिदायत के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार, धन्यवाद ! दिखावे और आडम्बर रहित , निरभिमान कर्म करने की उनकी शिक्षा के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

तू न कर बन्दे मान , मान नहीं हरि को भाता है
जो बलि करे है मान , उस का बल घट जाता है
रावण जैसे बलवान मार कर परे गिराता है ! तू न कर ….
जो धनी करे है मान उसका धन घट जाता है
राजा से कर कंगाल दर दर भीख मंगाता है ! तू न कर….
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              मेरो गिरिधर गोपाल , मेरो साँवरा

रचना-34
                 राधिका
तू मुझमें मैं तुझमें राधे , एक दूजे में समाए
भांति भांति की लीला रचने दुनिया में हम आये
हम दोनों हैं एक कोई ये , एक विरला ही जाने
अलग अलग तन होने पर भी , एक हमें पहचाने
एक शक्ति के भाग हुए दो पाया मानव रूप
मगर वास्तव में है अपना नित्य एक स्वरूप
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )
श्री राधे स्वामिनी हैं कन्हाई की , हृदयेश्वरी , विशुद्ध प्रेम और आत्मा गोविन्द की ! एक ही शक्ति के दो स्वरूप , दो तन और एक आत्मा ! तभी कन्हैया की वे पूज्य , प्राणेश्वरी और हृदय स्पंदन हैं ! आज की रचना में रचनाकार , मेरे भैया , कान्हा की ओर से श्री जु की स्तुति यूँ कर रहे हैं …...मेरी राधिके …..मेरे प्रेम की तुम पहचान हो …..तुझ जैसा ही भोला …..विशुद्ध अलौकिक . निश्च्छल और निःस्वार्थ प्रेम है तुझसे मेरा…..इस तन के प्राण तुम्हीं हो …..बिन धड़कन जैसे दिल शान्त हो जाता है …..तुझ बिन मैं भी वैसा ही हूँ ….तुम अमर प्रेम का तराना …..मेरा सम्मान हो …..मेरी तो वँशी जब भी धुन छेड़ती है …..राधे नाम ही उच्चरित करती है ….. असीम गुणों की खजाना ….. बरसाने धाम की धुरी तुम्हीं हो …..तुम्हीं से बरसाने धाम की ख्याति है…..सुन्दर इतनी कि चन्दा भी शर्मा जाए …...प्रेम पुजारिन हो तुम …..प्रीत में कोई तेरा सानी नहीं …..मेरी तो हो ही पूज्य …..मेरी स्वामिनी …..मेरी आराध्या …..तभी तो तेरे प्रेम की भीख माँगने के लिए …..यहां वहां झोली फैलाये दान माँगता रहता हूँ …..योगियों की का ज्ञान …..मुनियों का ध्यान केंद्र तुम्हीं हो …..मैं भी तो अपने भक्तों से …...अपनी प्राप्ति के लिए …..राधे नाम का सुमिरन ही करवाता हूँ …..राधे राधे जपवाता हूँ …..! रचना कान्हा के राधे प्रति अगाध प्रेम और सम्मान को दर्शा रही है ! भक्तजन भी राधे नाम सुमिरन से ही भव से निस्तार हो कन्हाई को पा सकते हैं ! ऐसी भावभीनी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! राधे नाम ही कृष्ण प्राप्ति का मार्ग है , समझाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
राधे तेरे चरणों की गर धूल ही मिल जाये
सच कहती हूँ मेरी तक़दीर बदल जाये
                जय श्री राधे

रचना-35
     तेरे प्रेम में पागल मनवा भागे तेरी ओर
ओ कृष्ण कन्हैया प्यारे , हम आये तेरे द्वारे
अब तोड़ जगत के सारे , रिश्ते हम तेरे सहारे
ये डगमग डोल रही है भवसागर में नैया
इक तेरी आस कन्हैया , अब तू ही लगा किनारे
ओ कृष्ण कन्हैया ……
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )
इक विह्वल मन का वेदनायुक्त निवेदन है कन्हाई से आज की रचना ! भक्त का मन कन्हाई के प्रेम में अटका हुआ है , खदशा हैं  प्रेमरोग लगा कहीं छलिया , चित्तचोर कहीं छिप ना जाये ! रचनाकार मेरे भैया भक्त के भावों का यूँ निरूपण कर रहे हैं …..कन्हाई …..तेरे प्यार का शैदाई हो गया हूँ …..देखना कहीं पल्ला छुड़ा चले मत जाना …..तुम सङ्ग प्रेम की डोरी से बन्ध चुका हूँ चित्तचोर , देखना छूटने की कोशिश नहीं करना …..जबसे तुमसे नेह लगा है …..पल प्रति पल प्रेम पिपासा बढ़ती ही जा रही है …..मानो तुम सावन के घनघोर बादल …..और मैं स्वाति बूँद पाने वाला चकोर हूँ …..जब से  तेरी लगन लगी है …..मिलने की तड़प बढ़े जा रही है …..इस बढ़ती तड़प में …..चित्तचोर …..छलिया …..कहीं छिप नहीं जाना …..हिरन की पानी की तलाश की तरह …...मैं भी तेरे प्रेम में छटपटा रहा था ….अब विरक्त हो तेरी चरण शरण में आ गया हूँ …...तुम दामन नहीं छुड़ाना …...कन्हाई तुम दामन नहीं छुड़ाना …..! रचना भक्त का सविनय निवेदन है कन्हाई से , शरणागति देने के बाद मन में पूर्णतया बसे रहना , पीछा नहीं छुड़ाना , भक्ति को और भी परिपक्व बनाना ! ऐसी हृदयस्पर्शी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! मन मे कान्हा प्रेम बसाये रखने के दृढ़ इरादे की इच्छा पैदा किये रखने की उनकी ताकीद के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
भगवान मेरी नैया उस पार लगा देना
अब तक तो निभाई है , आगे भी निभा देना
दलबल के साथ माया घेरे जो मुझको आकर
तुम देखते ना रहना , झट आके बचा लेना
भगवान मेरी …….
                     तरणतारण मेरो गोविन्द

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कृष्ण माधुर्य व्याख्या बुक1 पार्ट 4 उमा सरपाल

रचना-72

जो अपने प्रेमी भक्तों पर बलिहारी
धन्य धन्य हे गिरिधारी धन्य धन्य हे बनवारी
जिनको मीरा प्यारी और शबरी प्यारी
धन्य धन्य हे गिरिधारी …..
जो भक्तों की पीड़ा पर दौड़े आते
देर नहीं पल भर की , भी जो कर पाते
पांचाली की तूरत बढ़ा देते साड़ी
धन्य धन्य हे गिरिधारी …..

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

कान्हा प्यारे का अपने रसिकों से मिलना मुश्किल तो नहीं , बस उसके लिए प्रेम , भावपूरित आँसू , भाव , अन्तस की सफाई , समर्पण की आवश्यक है ! इन्हीं पर प्रकाश डाला है आज रचनाकार मेरे भैया ने ! उनका कहना है …...श्याम तो आसानी से मिल ही जायेंगे …..उससे हृदय से प्रेम तो करो …..आँखों को प्रेम में रोने तो दो …...मैं सच कहता हूँ ….वो प्रेमवतारी …..सिर्फ प्रेम का …..तुम्हारा भाव ही चाहता है …...सदा से वो ऐसे ही मिलता रहा है …..तुम भी अपने मन को …..राग द्वेष …..घृणा …..मन मुटाव …..स्वार्थीभाव से ऊपर उठ ….इसे निश्च्छल बनाओ …..तभी वो स्वच्छ हृदय में आ बैठेगा …..पूर्णतया समर्पण करदो …..स्वयं को …..और कन्हाई के सेवक बन कर रहो …..वो कहीं बाहर भी नहीं …..आँखे बंद कर ध्यान तो लगाओ ….तुम्हे अंदर से ही साक्षात्कार हो जाएगा …..उस के विरह में विरहणी की तरह से रोओ …..कान्हा ज़रूर दीदार देगा …...जैसे मुझे ( रचनाकार को ) उसे पा आनन्द की प्राप्ति हो गई है …..तुम भी अपने जीवन मे बहार ले आओ …...बहार ले आओ ……! रचना छोटी छोटी हिदायतें दे रही है , मन को  प्रेम , समर्पण , भाव , और विरह से परिपूर्ण रखो ! ऐसी ज्ञानवर्धक प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! छोटी छोटी हिदायतों से कान्हा प्राप्ति हो सकती है का ज्ञान देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

बड़े प्रेम से मिलना सबसे दुनिया में इंसान रे
क्या जाने किस भेस में बाबा मिल जाएं भगवान रे

               प्रेमवतारी मेरो कन्हाई

रचना-73

मत भूलो कृष्ण कन्हैया को
मत भूलो राधा रानी को
दो प्रेमासक्त प्रेमियों को
उस पावन प्रेम कहानी को ! मत भूलो ….
वो प्रेम अमर है जगती पर
जो निश्च्छल देहासक्त न हो
धन्य हैं ऐसे प्रेमी जन औ
धन्य है ऐसी जवानी को ! मत भूलो …..

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य में से )

श्री कृष्ण अनुरागी भक्त के भाव हैं आज की रचना , जो सुख और आनन्द कृष्ण प्रेम में है वो सुख और आनंद कहीं भी नहीं ! यही प्रेम सर्वोपरि है ! निराकार रूप में ब्रह्मांड के कण कण में समाया है और रसिकों , भक्तों को दर्शन दे कृतार्थ करने के लिए , कभी राम , कभी शाम और अन्य अवतार ले अवतरित हुआ है ! है यह आस्था , निष्ठा , श्रद्धा  दृढ़ निश्चय और विश्वास का विषय , इसी में दृढ़ आस्था रखते हुए कृष्ण प्रेमी , रचनाकार मेरे भैया बता रहे हैं …..कृष्ण  …..तेरे प्रेम….और श्री चरणारविन्द का सा …..सुख और कहीं भी नहीं है ….. तू दूर है …..इसीलिए तेरे दर्शनों के लिए …...तेरे धामों में चला आता हूँ …..निवास मेरे अंतर में भी है …...जिसे ध्यान में बैठ प्राप्त करता हूँ …..सर्वोपरि बात तो यह  है ….. आस्था को दृढ़ रखने वालों को ही….यह सुख प्राप्त है …...निराकार रूप में तो प्रकृति के …..कण कण में तू ही सुशोभित है ….साकार रूप में.....अपने भक्तों को आगे बढ़ …..दरस दिखा देते हो तुम गोविन्द …..मीरा …..राधा …..सन्त कबीर …..तुलसी दास ने …..अपने पदों …..छन्दों में तुम्हारी स्तुति की है …….तुम तो अपने सेवकों के दिल मे ….धड़कन बन धड़कते हो …..इतने करीब हो सबके …..और मथुरा - वृन्दावन तो तेरे धाम हैं ही …..गर  सिर्फ मूर्ति तक ही तुम्हें …...सीमित कर लूँ तो यह  मेरी नादानी है …..मूर्ति में ही सीमित रखना मेरी नादानी है …..! रचना कृष्ण प्रेम में ओतप्रोत , उसके निराकार और साकार रूप को दर्शा रही है ! ध्यान लगा उसे अन्तस और दर्शनार्थ उसके धामों पर जाने की प्रेरणा भी ! ऐसी प्रेमपगी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कृष्ण प्रेम में अनुरक्त प्रेमी के सुखों के बखान के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

गोविन्द चले आओ गोपाल चले आओ
हे मुरलीधर माधव नंदलाल चले आओ
तेरे दर्शन को मोहन मेरे नयन तरसते हैं
इकपल भी चैन नहीं दिन रात बरसते हैं
मुझको बुला लो तुम या खुद ही चले आओ
गोविन्द चले …..

         मेरो मधुसूदन , मेरो नंदलाला

रचना-74 

प्रीत की डोर तोड़ न देना मोहन प्यारे
जग में अकेला छोड़ न देना नंद दुलारे
कोई नहीं है जग में मोहन तुझ बिन मेरा
लोभ मोह मत्सर ने और माया ने घेरा
मुखड़ा मुझ से मोड़ न लेना मोहन प्यारे
प्रीत की डोर…….

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य से )

आज मित्रता दिवस है ! मेरे पुराने ज़माने में * मित्र * , * दोस्त * शब्द को ही हेय दृष्टि से देखते थे , लेकिन आज बेटे बेटियों और भाई के रूप में मित्र पा गौरवान्वित महसूस कर रही हूँ ! मित्रता हर कोई चाहता है ! हमारे कान्हा ने भी तो दामा , श्री दामा , सुदामा , उद्धव और अर्जुन से मित्रता निभाई ! रचनाकार मेरे भैया आज कान्हा से अपनी मित्रता की बात कर रहे हैं ! क्या दिया उन्हें कान्हा की दोस्ती ने , बता रहे हैं…...कान्हा जब से मैंने…...तुझे अपना यार मान लिया है …….तभी से बड़ा सुखद अहसास और…….हर मनबांछित…...कामना पूरी हो रही है…...जीवन मे उल्लास…..नई स्फूर्ति…...और आनंद आ गया है…प्रीत…..प्रेम …..को अब धर्म ही मानता हूँ…....और तेरी दोस्ती मेरे रोम रोम में…….समा गई है…...दोस्ती मैं भी तनदेही से निभा रहा हूँ…….तेरी याद बहुत आती है प्यारे…...उसी याद में आँखे सदा नम रहती हैं…....सुमिरन करता रहता हूँ तेरा …….बिसार नही पाता…..तुम भी तो इस दोस्ती को निभाते हुए…...अपना हर वचन निभाते हो…...कभी मोह मत्सर में …...गर तुझे भुला भी हूँ……तूने मेरा पथप्रदर्शक बन…...मुझे राह दिखाई है गोविंद…...मुझे माया से विरक्त कर…..अपनी शरण मे ले लिया….. अपने प्रेम के अमृत से…...मुझे मालामाल कर दिया…..मालामाल कर दिया …….! रचना सच्ची मित्रता के परिणाम बता रही है ! सच्ची ओर निःस्वार्थ भाव की मित्रता का तो कोई सानी नहीं ! जीवन के लिए आक्सीजन जैसी ! ऐसी भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! मित्रता से नवजीवन का संचार दिखाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

जब से प्रीत लगी मनमोहन
जीवन में आया ज्यों सावन
जहां रहूँ तू पास है मेरे
वंशी की धुन साथ है तेरे
वो मथुरा हो या द्वारिका
लागे सारा जग वृन्दावन
जब से प्रीत……
           मित्रता प्रभु की अमूल्य देन है
               इसे तनदेही से निभाओ
                       हरे कृष्णा

रचना-75

कंहातेर नाम निराला लगता है
मुझको तो अमृत का प्याला लगता है
घूँट घूँट पीता जाऊँ , पीता जाऊँ
गंगा का जल और शिवाला लगता है
कान्हा तेरा……
पीता है जो वही मस्त हो जाता है
उसका माया मोह नष्ट हो जाता है
जाने कैसा नशा है उसके पीने में
तेरा रूप हर पीने वाला लगता है
कान्हा तेरा……

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य में से )

# कृष्ण प्रेम बिना नहिं मिलता चाहे कर लेउ कोटि उपाय # को चिरतार्थ करती रचना यही स्पष्ट कर रही है कि प्रेम बिना कन्हाई मिलता नहीं ! भाव से उसे अपने साथ समझ उससे लाड़ लड़ाएं , उसकी मनोहारी करें और विरह मैं उसकी याद असह हो जाए , अबिरल नयन- बारि उसे पुनः आने को विवश कर दे ! रचनाकार मेरे भैया कृष्ण प्राप्ति का ढंग यूँ बता रहे हैं …..कान्हा तुम्हें मिल तो जाएगा …..पर उसकी प्राप्ति के लिए उससे नेह लगाना होगा …...तुम्हारा कुछ भी उसे दरकार नहीं …...बस प्रेमभाव से आँखों से बहे आँसू उसे समर्पित करें ….मन मे यह निश्चय रखें ….वो तुमसे दूर नहीं …..योगासन से अपने अंतर में से ही मिल जायेगा …..प्रकृति के कण कण में …..निराकार रूप में भी वही विराजमान है …..है तो वो निराकार …..पर अपने भक्तों के लिए …..राम …..कृष्ण …..शिव भोले ….अन्य इष्ट के रूप में प्रकट हुआ करता है …..जैसा भक्त का प्रेम होगा …..उसी भाव से उसके दर्शन होंगे …..बस उसे मिलने के लिए …..मन मे तड़प जगाओ ….जग से बिमुख हो …..कान्हा पर ही अपना निश्चय रखो …...जग से चाहत दुख देती है …..वो शाश्वत ही मन को सकून देता है ….राधे की तरह की …..निःस्वार्थ …..निश्च्छल …...निष्काम …..अद्वितीय प्रीति बढ़ा …..अपने सपने साकार …..ख़्वाहिशें पूरी करो …..कृष्ण प्रेमियों को …...पागल का रुतबा दिया जाता है …..लेकिन वे नादान ये नहीं जानते …..कान्हा ऐसे ही प्रेमियों के मन मे बसता है …..कहने वालों के कटाक्ष सह लो …..उनसे बहस बिल्कुल नहीं करें …..बहस बिल्कुल नहीं करें …..! रचना कृष्ण मिलन का ढंग और प्रेमी की पहचान स्पष्ट कर रही है ! ऐसी मनोहारी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कान्हा प्राप्ति के लिए उससे नेह लगाने का गुर समझाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

सुनो , किस तरह साँवरे नूं पाईदा
पहिलां अपना आप गंवाईदा
साँवरे नूं इस तरह पाईदा

                 साँवरा सलोना मेरो
रचना-76

तेरे प्रेम में पागल मनवा भागे तेरी ओर
      श्याम मत जाइयो हम को छोड़
         अब ना छुटाए छूटे कान्हा
           बन्धी प्रीत की डोर
     श्याम मत जाइयो हमको छोड़

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य में से )

प्रीत की रीत भी निराली है ! कोई नियम , असूल नहीं चलता , दीन दुनिया , लोकलाज की भी परवाह नहीं ! जब प्रेम ही कन्हैया से हो तो कहना ही क्या ! रचनाकार , मेरे भैया इसी हक़ीक़ी , रूहानी प्रेम की बात यूँ करते हैं …..कन्हाई से जब प्रेम हो ही गया है …..तो जग की कैसी परवाह ….और क्यों ?.....प्रेम में सोचना ही क्या …..जो होगा देखा जाएगा …..ज़माना रूठता है तो रूठता रहे …..मुझे सब छोड़ भी दें तब भी गम नहीं …...जब मुरलीवाला मेरे साथ है ….मुझे किसी का डर नहीं …...कन्हैया प्यारे के सानिध्य में …..सँसार की इच्छा कौन करे  …..अब तो उसके सहारे उसी के धाम …..जो सितारों से भी परे है …..चली जाऊँगी …...अपने साँवरिया के पास जाने …..और पास बुलाने का एक ही ढंग है …..वो है उसका संकीर्तन …..हरे कृष्णा हरे राम …..अपने श्वास को भृकुटि के बीचों बीच ला …..ब्रह्मरन्ध्र में ले जाएं …..तभी घट घटाकाश में …..एक बूँद महासमुंद्र में …...आत्मा का परमात्मा में विलय होता है …...आत्मा का परमात्मा में विलय होता है …..! रचना कन्हैया से मिलने के रास्ते समझा रही है , भजन कीर्तन से भी और समाधिस्थ होकर भी ! ऐसी प्रेमपगी ज्ञानवर्धक प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार धन्यवाद ! विभिन्न ढंगों से भक्ति करने की राह दिखाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

लगन हरि से लगा बैठे जो होगा देखा जायेगा
तुम्हें अपना बना बैठे जो होगा देखा जायेगा !

                मेरो गोपाल गिरिधारी

रचना-77

साँवरे मैं लूट गया हूँ प्यार में तेरे
लगता नहीं है दिल मेरा संसार मे तेरे
साँवरे तेरे जगत का प्यार झूठा है
जिसको किया है प्यार वो हर बार रूठा है
और प्रेमी का हृदय हर बार टूटा है
हाय प्रेमी के हुए अपमान बहुतेरे
साँवरे मैं लूट गया हूँ प्यार में तेरे

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य में से )

प्रेम आह्लादित मन की अनुभूति ! भगवान का दूसरा नाम और # कौन कंहदा प्यार करना पाप है , जिसने है यह दुनिया साजी प्यार ते ओह आप है # बड़े बड़े दोष इस प्रेम की आड़ में छिप जाते हैं , अपने प्रेमी में दोष दिखता ही नहीं , वो तो सदा निर्दोष है ! प्रभु के अंश होने के नाते , जीव की भी प्राकृतिक प्रवृति है प्रेम ! भगवान ने जीव , अपने भक्त के प्रति नेह को व्यक्त किया है रचनाकार मेरे भैया , की आज की रचना में ! वे कहते हैं…..मेरे प्रभु कभी अपने भक्त की…….कमी नही देखते …...उसका भाव देखते हैं…..कितना प्यार है उसे अपने प्रियतम से…...समर्पण भाव से जो उसे याद करे …...सुमिरन करे …...उसे दर्शन ज़रूर देते हैं…..इसलिए उसे सदा प्रेमभाव से …..याद करो …..उसकी छवि को निहारो …..उसकी रूप सज्जा करो …..तब वो तो अपने भक्त पर …..बलि बलि जाता है …..प्रेम की मूक भाषा जानता है वो …..भक्त के भाव को समझता है …..इसलिए नादान …..उससे प्रेमपूर्वक बातें किया कर …..वो तेरी कमियों को कहाँ देखता है …..प्रेम में ही वो तुझे ….उल्लासित रखता है …..प्रेम में तेरी गलतियों को …..देखता तक नहीं…..सदा तेरे अंगसँग रहता है …..तेरी रक्षा करता है …..उसकी वँशी मधुर तराने गाती हैं …..स्वयं यदुवंश दीपक कृष्ण…...प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं …..उसका तो अंग अंग …..प्रेम से भरपूर है …..एक बार प्रेम से …..तू उसे पुकार तो सही …..देख वो कैसे दरस दे देता है …..दरस दे देता है …..! रचना प्रभु के विशाल प्रेम की कृपा पर आधारित है ! अपने भक्तों के अवगुणों को दरकिनार कर सिर्फ उनके खलिस प्रेम का भूखा है वो ! उसकी प्राप्ति के लिए हम उसे प्रेमभाव से याद किया करें ताकि उसका दर्शन कर सकें ! ऐसी प्रेमभाव की प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! प्रेम ही प्रभु प्राप्ति का एकमात्र साधन है का ज्ञान देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक मङ्गलाशीष !

मोहन प्रेम बिना नहीं मिलता चाहे कर लेउ कोटि उपाय
मिले न यमुना सरस्वती में मिले न जंग नहाए
प्रेम सरोवर में जब डूबे प्रभु की झलक लखाय
मोहन प्रेम बिना …..

         हरे कृष्णा , राधे गोविन्द

रचना-78

इक तेरा सहारा है कृष्णा
किसी और की अब दरकार नहीं
ये जग के सब रिश्ते झूठे
मुझे और किसी से प्यार नहीं
इक तेरा …..

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य -2 में से )

एक समर्पित भक्त की दास्तां है आज की रचना ! संसार से विरक्त वैष्णव ने अपनी जीवन डोर कन्हाई के हाथ थमा दी है ! जैसे चाहे , वो वैसे चलाये ! उसी की रज़ा में रहने के लिए साधक दृढ़ निश्चयी है ! उसके भावों को रचनाकार , मेरे भैया यूँ विस्तार दे रहे हैं …..मेरे प्रभु ….बस एक तेरा ही सहारा है मुझे …..तुम्हें छोड़ किसी से भी मेरा कोई नाता नहीं …...आँखे दिन रात तेरी ही इंतज़ार में रहती हैं …...मन को किसी समय चैन नहीं …..तेरी यादों में ही दिन रात गुज़र जाता है …..अब तुम्ही मुझे राह दिखाओगे …..मेरी अज्ञानता को तू ही बदलेगा …..मेरे अंतर की तमस तुम्ही घटाओगे …..मेरे जीवनाधार तुम हो …..मेरी जीवन नैया के खबैया तुम हो …..मैं मोह माया की दलदल में धंसा हूँ …..प्रभु तुम्ही पार लगाओगे …...मेरी पुकार कब सुनोगे मेरे गोविन्द …..कब अपनाओगे अपने दास को …...मैं तेरी शरण में हूँ …..तेरी शरण मे हूँ ….! रचना गुहार है अपने प्रियतम से , एक सेवक की , वो उसको भवसागर से पार उतार दे , उसी के आसरे वो संसार मे जीअ रहा है ! ऐसी समर्पित भाव की प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! प्रभु की रज़ा में रहने की सीख के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

दया कर दान भक्ति का हमें परमात्मा देना
दया करना हमारी आत्मा में शुद्धता देना

               सृष्टिनियन्ता , परब्रह्म परमेश्वर

रचना -79

पकड़ लो हाथ बनवारी नहीं तो हम डूब जायेंगे !
हमारा कुछ न बिगड़ेगा , तुम्हारी लाज जायेगी !

प्रभु में अटल विश्वास और आस्था की परिचायक है आज की रचना ! * डूबते को तिनके का सहारा * ही काफी है , गर उस तिनके पर भरोसा हो ! रचनाकार मेरे भैया ने उसी भरोसे से प्रभु से जो निवेदन किया है वह कुछ यूँ है…..तेरे सहारे ही इस भव को ….पार कर पाऊँगा मेरे गोविन्द….बस तू सहारा बन तो सही मेरे मनमीत…..सहारा ही चाहिए …..किसी रूप में हो…..भले ही तिनका बन आजा…..उस में भी तेरा ही स्वरूप है ….वो तिनका ही मुझे पार लगा देगा…..तेरे लिए चाहे यह सामान्य सी बात हो…..पर मैं भव से पार उतर जाऊँगा तेरी करुणा से …...तेरी रज़ा में हूँ….चाहे * नैया मेरी डगमग डोले बीच भँवर के खाये झँकोले * …..उस को तेरी रजा से…..पतवार मान किनारे लग सकता हूँ…..बस एक बार  सहायक बन जा मेरा….मेरे कृपासिंधु…..तेरी करुणा हो तो…..स्वतः खबैया बन मेरे जीवन की कश्ती को …..पार लगा सकते हो…..कुछ भी तो तेरे लिए असम्भव नहीं….तूने रास रचैया कन्हैया बन….लाखों का उद्धार  कर दिया….,उसी तरह * मैं विपदा की मारी , मेरी सुन लो बनवारी …...तूने लाखों को तारा , अब आई मेरी बारी …..मेरे पापों को अपनालो …..दर्शन दो दर्शन दो * …..मेरी आस , मेरा भरोसा सिर्फ तुम्ही पर है …..तुम्हीं पर है मेरे गोविन्द , पूरा करो न ….पूरा करो मेरे साँवरे ! रचना कन्हैया में पूर्ण विश्वास और उसकी करुणा की मोहताज है , भक्त का भरोसा टूटने न पाए यही विनती बारम्बार की गई है ! ऐसी करुणामयी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! प्रभु की रज़ा में दृढ़ विश्वास को परिपक्क रखने की प्रेरणा के लिए उन्हें साधुवाद और हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

हे दीना बन्धु करुणा सिंधु पर करो मेरी नैया !
गहरा जल है दूर किनारा , तुम ही बनो  रखबैया ! हे दीना….
रात अँधेरी मग नहीं सूझे , तुम ही बनो राह दिखाईया ! हे दीना…
मीरा के प्रभु गिरधर नागर भक्तों की लाज रखैया ! हे दीना….

             हे कृपासागर ! करुणा सिंधु !!

रचना-80

कान्हा तुमको मिल जायेगा बस कान्हा से प्यार करो
और नहीं कुछ उसे निवेदन अश्रु का उपहार करो
तुमसे दूर नहीं वो बिलकुल यह विश्वास रखो मन मे
ध्यान लगाओ उसे निहारो देखो अपने तन मन मे
कण कण में वो बसा सभी मे उसका ही दीदार करो
कान्हा तुमको मिल…….

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य में से )

एक भक्त की कान्हा से गुहार है आज की रचना ! बड़ी श्रद्धा प्रीत से कान्हा को चाहता है भक्त , बस उसका वरदहस्त चाहता है अपने सर पर ! पूर्ण समर्पित भाव है उसका , शरणागति चाहता है अपने प्यारे की ! भक्त के भावों को रचनाकार मेरे भैया ने यूँ प्रकट किया है …...गैयन के पालक …...नंद के दुलारे…..मुझे शरणागति देदे…..अपने श्री चरणों की सेवा …...मेरी प्रबल आकांक्षा है …..तेरा सेवक बन …..तेरी कोई सेवा किया करूँ…… मेरी यह मनोबांछा पूर्ण करदे गोविंद…..बस एक बार…..सिर्फ एक बार …...दयाभाव से मुझ पर दृष्टिपात करले…...हूँ तो मैं तेरा ही अंश…...अपने अंश को क्यों भूला दिया तूने कान्हा……आखिर मैंने भी कोई…...शुभकर्म किये होंगे…...जो तेरी लगन लगी है…...किसी भी कसौटी पर परख…...और निरख ले …...हर परीक्षा देने को तैयार हूँ मैं…...तुझ में अपार श्रद्धा है मुझे…..उसी श्रद्धापूर्ण सुमिरन का …….परिणाम ही तो है ….तुझसे मेरा नेह बढ़ता जाता है…...पूर्ण श्रद्धा प्रेम के …..मेरे इस भोग को…..इकबार ग्रहण तो कर मेरे साँवरे…..एक बार मेरी खामियों का …..बखान तो कर….उन कमियों को मैं…..सुधार लूँ …...मैं अधम…..नीच …..पापी हूँ…...मेरे पापों को हर ले मुरार …..निष्पाप कर दे मोहे…..निरन्तर तेरे गुणों को गाता रहूँ…..ऐसी शक्ति देदे …..मेरे पुरबले पापों का हरण करले प्यारे…..और अपनी कृपा के आगोश में मुझे लेले …..अपनी कृपा के आगोश में  लेले …..! रचना एक भक्त की अपने सांवरिया से अनुनय विनय है ! मैं जैसो तैसो तेरो गोविंद , मुझे शरणागति देदे ! नेह बहुत है तुझसे ! मेरी खामियों को दरकिनार कर अपनाले मुझे ! ऐसी प्रेमपगी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! प्रीत की रीत समझाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

मेरे बाँके बिहारी जी दर्शन दो दर्शन दो
मुझे और न तरसाओ दर्शन दो दर्शन दो
कई जन्मों की प्यासी तेरे मन्दिर में आई
कुछ पास नहीं मेरे कुछ साथ नहीं लाई
मेरे पापों को अपनालो दर्शन दो दर्शन दो
मेरे बाँके बिहारी जी…….

          मेरे मनमोहना , मेरे चित्तचोर

रचना-81

इह जाम मुहोब्बत दा जिहडा इक बारी पी लैंदा
टूट जाँदे ने दुःख सारे तेरी रज़ा विच जी लैंदा
यह मस्ती उतरदी नहीं नशा चढ़ के उतर जांदा
तेरे दर उत्ते आ गयी आँ हुन मुड़या नहीं जांदा
लड़ फडया तेरा श्यामा हुन छड्या नहीं जांदा

गुरुवाणी की तुक है # सभे नशे जग दे उतर जान प्रभात , नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात # सचमुच जिसे नाम सुमिरन का नशा लग जाये , वो इसी में हर समय आनन्दित रहता है ! उसे न धन दौलत की लिप्सा रहती है ना माल खजाने की ! हर पल नाम के नशे में डूबा रहता है ! ऐसे भक्त के भावों को मेरे भैया यूँ बयान करते हैं …..कन्हैया …..बिन पीये ही तेरे नाम की मस्ती में डूबा रहता हूँ …...इसीलिए लोग मुझे ….पगला ….दीवाना की उपाधि दिए हुए हैं …..तेरे नाम की मस्ती की ….मादकता बिखरी है …..मुझे भी उसकी घूँट और पिला दे …..मेरे साँवरिया …..ना अपने आप की सुधि रहे …..ना दीन दुनिया की …..इसी मस्ती में हर पल खोया रहूँ …..संसार कितनी कोशिशें करे …..यह मस्ती उतरने नहीं पाए …..धन दौलत ….हीरे पन्ने ….मेरे .सुमिरन के सामने तुच्छ हैं …..जो आनंद भजन ध्यान में है ….वो कहीं नहीं …...मेरे घनश्याम ….इस दुनिया ने  तेरे नाम से मुझे बदनाम किया हुआ  है …...मेरा आलम यह है …..बस पीता जाऊँ …..थोड़ी सी और पीये रहूँ …..थोड़ी सी और …..यह प्यास बुझे ही नहीं ….क्या कहूँ सदा इसी खुमारी में रहने का मन करता है …...कुछ और भाता भी तो नहीं …… इसी जाम की तालाश में तेरे पीछे पीछे …..तुझ से सुमिरन की स्थिरता मांगते हुए ….चलता रहूँ और तुम मुझे अपने निज धाम ले जाये …..अपने निज धाम गोलोक ले जाये …..! रचना सुमिरन की मस्ती के आनन्द को दर्शा रही है ! सच है जाम पे जाम पीने का क्या फायदा , सुबह होते होते उतर जाएगी , हरिनाम के प्याले पीलो , ज़िन्दगी सँवर जाएगी ! ऐसी खुमारी भरपूर प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार धन्यवाद ! मस्ती के आनंद से सराबोर कर देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

हरि शरणं हरि शरणं हरि शरणं  हरि शरणं
यही उपदेश प्रह्लाद को दिया था श्यामसुंदर ने
निकसा खम्बे से उसने हरि शरणं हरि शरणं
 
            गोविन्द हरि घनश्याम मुरलिया वाले

रचना-82
     अब देख तमाशा दुनिया का तू
        एक तमाशाई बन के

हरि ध्यान लगा रे , मनवा हरि का ध्यान लगा
हरि को सोच , हरि को बोल , हरि के भजन सुना
हरि का ध्यान लगा…
सभी ओर से दृष्टि हटा लें , एक हरि से लगन लगा
मन मे हरि की छवि निहार ले , हरि के चरण सजा
हरि का ध्यान लगा ……

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य -2 में से )

संसार से विरक्त , समर्पित भक्त का चरित्र चित्रण है आज की रचना ! ऐसा भक्त जो संसार से निर्लिप्त हो इसे एक तमाशे की तरह देख रहा है ! वो स्वयं तो कमल के समान इस जग की  दलदल से ऊपर उठ जीता है ! ऐसे भक्त के गुणों को रचनाकार मेरे भैया ने यूँ दिखाया है …...संसारिक लोगों की लिप्तता को …..निर्लिप्त भक्त तमाशे की तरह देखता है …...वो स्वतः तो  कमल के फूल की तरह है …...जो दलदल से पैदा होकर भी…..दलदल से निर्लिप्त रहता है …...इस संसार मे कोई किसी का नहीं …...झूठे रिश्ते हैं जो मौत के बाद खत्म हो जाते हैं …..दुनिया मे आकर फिर चले जाना …..एक रमते जोगी की तरह है …...जो एक बार अलख जगा ….चले जाने के बाद दुबारा नहीं आता …..इस अलख को अपने मन मे जगा …..कन्हाई का कीर्तन किया कर …..संसार से निर्लिप्तता के सारे नाते तोड़ …..सिर्फ सत्य …..सनातन …..शाश्वत …..यशोदा नंदन कृष्णा से अपना नाता रख …..उसी की रज़ा में रह और उसी का सुमिरन कर …….वो ही नृतक है …….नृत्यका है …..कर्ता भी वही …...और कर्म भी वही है …...बाहर भी वही है निराकार स्वरूप में …….और अन्तस में भी वही है ….. शरीर को चलाने वाला …...शरीर को चलाने वाला ….वही है ! रचना जग से निर्लिप्त भक्त की पहचान बता रही है ! उसकी सारी उम्मीदें कान्हा ही पर हैं ! ऐसी विरक्त भाव की प्रस्तुतिके लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! सांसारिक झूठे नातों को छोड़ शाश्वत से नाता जोड़ने की सीख के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

बड़े भाग्य से मनुष्य देह मिली है
खा खा योनियों की मार , जीव हुआ है लाचार
चोट सीने पे चौरासी लाख झेली है

                जय गोविन्दम जय गोपालम

रचना-83
   दीवाने हो जाओ पागल बन कर घुमाओ , प्रीत करो
                  कान्हा से , यारो नाचो गाओ

उनकी मुस्कराहटों पर हम निसार हो गए
उनके आशिकों में हम शुमार हो गए
वो अदायें देख कर हम रह सके ना हम
डूबे ऐसे प्यार में , प्यार प्यार हो गए
थी खिज़ा सी ज़िन्दगी , जब तलक मिले न थे
उन से जैसे ही मिले हम बहार हो गए

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

‘कान्हा प्रेम पुजारी है , प्रेमवतार है ! मिलता और सम्बन्ध भी उन्हीं से रखता है जो उसे प्यार करते हैं ! कान्हा प्राप्ति की , गर , भक्त को उत्कट इच्छा है , तो रचनाकार मेरे भैया उन्हें बहुत सरल सा उपाय बता रहे हैं ! वे कहते हैं …..कान्हा से प्रीत करो ….उसकी मस्ती में झुमों नाचो …...पगला जाओ …..दीवाने हो जाओ मीत कन्हैया के …..जीने और मरने की भी सुरत न रहे …..आखिर मेरे यार …..कन्हैया से प्यार किया है ……
लबों पर हँसी हो वो उसके नाम की …..भजन उसी के …..खुद से बात करो …..वो कन्हाई की …...खुमारी में भी उसी के नाम का नशा ….. किसी से डरना क्यों …..बताओ सब को …..कन्हाई से प्यार है मोहे …. यह दुनिया पागलखाना है …..यहां का हर बशर पागल …..गर कोई समझदार है वो है सिर्फ कृष्ण दीवाना …...कान्हा के प्रेम की तड़प उतनी ही सुखदाई है …..जितनी एक पतंगे को शमा पर जल …..जीवन की सम्पूर्णता से मिलती है …..प्रेम जीवन नहीं …...बलिदान …...समर्पण मांगता है …..राधा ने कन्हाई …..लैला ने मजनूं …..शीरी ने फरहाद …..और हीर ने रांझे के लिए …..अपने जीवन कुर्बान किये …..तुम भी उनकी तरह के आशिक बनो …..या फिर मीरा की तरह फकीर बन जाओ …..जोगी बन जाओ …...लोकलाज …..कुलकान …..ओर सांसारिक बन्धनों को तोड़ …..साँवरे के हो जाओ …..ताकि तुम्हें पश्चाताप न रहे …..पश्चाताप न रहे …..! रचना कन्हाई से दिल की गहराईयों से प्रेम करने की गुंजारिश कर रही है ! विरहणी की तरह , जिसे किसी पल अपना प्रियतम नहीं भूलता ! ऐसी प्रेमपगी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कान्हा प्राप्ति के लिए उसे शिद्दत से नेह लगाने की ताकीद के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

एक सलोनी साँवली सूरत के गुण गाती हूँ मैं
जिस तरफ भी देखती हूँ सामने पाती हूँ मैं

                   मेरो चित्तचोर मोहिना

रचना-84
           तुझ से खफा होकर ना जीने पाऊँगा

तुझ बिन मेरे मन की भाषा कौन पढ़ेगा
कौन सुनेगा मेरे दिल की फरियादों को
तू ही है जिसको ना कोई भाषा लाज़िम
सब पढ़ लेता तू चाहे हो भाषा आदिम
तू आँसू का अर्थ भी प्यारे पढ़ लेता है
मुस्कानों में छिपा दर्द भी पढ़ लेता है

(श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )

भक्त को बहुत मान होता है अपने इष्ट पर , उससे कोई गिला हो तो स्पष्टतया कह देता है ! जैसे शिशु अपनी माँ की डाँट से रोते हुए उसी की पनाह में सकून पाता है , वैसे ही भक्त भगवान की करुणा की प्रशंसा भी करता है और अपना दुःख भी उसी को सुनाता है ! भक्त की प्रभु से फ़रियाद को रचनाकार मेरे भैया ने यूँ रूबरू किया है …...मेरे रब ….मैं तुम से नराज़ हूँ …..यह भी जानता हूँ कि तुमसे नराज़ होकर मैं जीअ नहीं सकता …..मुझे तुझसे शिकायत है कि मैं …..तुझसे दूर हूँ …..तुझसे अलग हूँ …..इसी कारण मैं अपना दुखड़ा …..तुम्हें सुना नहीं पा रहा हूँ …..अपनी परेशानियों से अवगत नहीं कर पा रहा हूँ …..बहुत कुछ रूबरू कहना चाहता हूँ …...पर मेरी फ़रियाद तुम तक ना पहुँच …..वापिस आ जाती है …...न तेरे पास आ सकता हूँ …..ना दुखड़ा सुना सकता हूँ …..तुझसे मैं तो अगाध प्रेम करता हूँ …..पर अपनी आँखों मे आये आँसू तक भी तुम्हें दिखा नहीं सकता …..तुझ पर बलि बलि जा रहा हूँ …..तू ही मेरा सच्चा यार है ….मुझे अपना मित्र मान …..मेरी नाराज़गी को दूर करदे …..और आ मेरे गले लग जा या मुझे गले लगा ले …...मुझसे न मिलने का ही गिला है मुझे ….. तेरे न मिलने से अत्यन्त अधीर हूँ …...मैं तो दिल-ओ-जान से अपनी मित्रता निभा रहा हूँ …..तेरे लिए ….,मैं जैसा हूँ वैसा ही सामने हूँ …..,दुनिया भले ही मुझे धूल का कण मात्र ही समझे …...मित्रवत हो मुझसे भेद क्यों रखे हो मेरे रब …..तेरे अहसानों के लिए पहले ही आभारी हूँ …...अब एक अहसान और कर दे…..मेरे समक्ष आ दरश दे दे…..समक्ष आ दर्शन दे दे……! रचना भक्त के अपने इष्ट प्रति अगाध प्रेम को दर्शा रही है ! भक्त की एक ही अभिलाषा है कि भगवान उसे दरस दिखा दें ! ऐसी भक्त को विह्वल करती प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! प्रेम ऐसा हो जिस पर मान किया जा सके , दिखाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

कन्हैया ले चल परली पार ,
जहां विराजे राधेरानी अलबेली सरकार
कन्हैया ले चल परली पार

            मेररो मनमोहन , गोविन्द

रचना-85
अश्रु की लड़ियाँ पिरो कर जब करोगे उस को अर्पण

झरने लगे नयनों से आँसू अब तो आन मिलो मेरे श्याम
झड़ी लग गई  है अविराम अब तो आन मिलो मेरे श्याम
कहाँ कहाँ खोजा प्रभु तुमको , मन्दिर मस्जिद तीर्थ छाने
भटक भटक कर तुझे खोजते बीत गए कितने युग जाने
हार गया प्रभु माला ‘कर’ ले जपते जपते तेरा नाम
झरने लगे ……

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1में से )

कन्हाई प्रेम पुजारी है , प्रेम की मूरत ! ब्रह्माण्ड को तृप्त कर देने वाले हरि को भौतिक कुछ नहीं चाहिए ! वो सिर्फ चाहता है भक्त का भाव , उसका प्रेम और प्रेम में छलकते प्रेमाश्रु ! प्रेमाश्रुओं से पसीज , अपने भक्त की बाँह थाम लेता है ! रचनाकार मेरे भैया केशव के यही रहस्य यूँ प्रकट कर रहे हैं …...कान्हा के प्रेम विरह में …..जब तुम्हारा मन द्रवित होने लगे…...आँखे उसके दीदार के लिए …..निरन्तर डबडबाती रहें …..और प्रेम में उसका विरह सह नहीं पाओे …...तब तुम्हारी पुकार पर …... उसका मन पिंघलेगा …..और वो साक्षात दर्शन देने चला जायेगा …..स्वभाव से वो निर्मोही है …...हरजाई है …..निष्ठुर है ….. अपने भक्त को प्रेम की कसौटी पर …..परखता है …..प्रेम की तड़प भाँपता है …..तब कहीं उसे अपनाता है …..फिर तो भक्त को स्वयं दरस दे पुकारता  है …..कभी गैयन चराते हुए ….गोपियों सङ्ग हास विलास …...असुर दमन …..अधरों पे धरी मुरली …..या सुदर्शन चक्र धारी  की लीलाएं …..दृष्टि में आती रहती हैं …..एक बार पकड़ा हाथ …..साँवरा फिर छोड़ता नहीं है …...सदैव अंगसँग ही रहता है …..और अन्तर्मन में से साक्षात दीदार होता रहता है …..तब यह संसार की माया ….. खुली आँख का सपना सा लगने लगती है …..आत्मा और देह  भी अलग अलग समझ आने लगती हैं …..देह पराई सी …..और मैं आत्मा …..उस परमात्मा की ज्योति का अंश हूँ ….समझ आने लगती है ….समझ आने लगती है …..! रचना , कन्हाई के ‘ भाव के भूखे ‘ होने को दर्शा रही है ! वो तभी मिलता है जब पूर्णतया उसे समर्पित हो जाओ ! ऐसी प्रेमपूरित प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कन्हाई से मिलने की सही राह बता देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

मोहन प्रेम बिना नहीं मिलता चाहे करलो कोटि उपाय

                      हरे कृष्णा

रचना-86
आजा रे अब लौट के आजा , आजा अपने घर प्यारे

बहुत रुलाया मैंने तुझको अब तो मुझको आना होगा
आँख मिचौनी छोड़ के सारी तुझको गले लगाना होगा
किया मजबूर अब तुमने , सदायें मुझको दे दे कर
ऋणी मुझको बना डाला बलायें मेरी ले ले कर
बहुत दिया है दर्द तुम्हेँ अब , तुम्हें अब गले लगाना होगा
बहुत रुलाया …..

                 ( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी )

बहुत दयालु कृपालु है हमारा कन्हैया ! बड़ी निष्ठुरता से पहले अपने भक्त को परखता है और परख में खरा उतरने पर उस पर अपना सारा प्रेम उढेल देता है ! उस पर अनुपम कृपा कर अपने निजधाम बुलाने के लिये उत्साहित कर देता है ! कन्हाई के भाव को रचनाकार मेरे भैया यूँ प्रस्तुत करते हैं …..मेरे भक्त ….तेरा असली ठिकाना जग नहीं …...ये गोलोक है …..आ अपनी आने की तैयारी कर …...मेरा अंश है तू ...आ और अपने पुंज में समा जा ….जन्म जमान्तरों ….युगों युगों से ….संसार मे तुम अच्छे बुरे कर्म करते रहे हो …..अब कर्मों को विराम दे ...मोह माया से मुक्त हो ….मेरे निजधाम चला आ …...तेरा कोई भी धर्म ….मज़हब.रहा हो …..जैसा , जो भी सुमिरन किया हो …..सबका लक्ष्य एक ही है …...मेरे धाम की प्राप्ति …..उन.सबसे प्रेम कर …..जो मेरा नाम भजते हैं …..सुमिरन करने वाले ही मुझे अतिशय प्यारे हैं …..जग एक सराय है …..आना जाना यहां लगा रहता है …..इसलिए नश्वरता में मोह डाल अपना समय न गंवा …...भजन में आई दुश्वारियों से बिना डरे …..आगे बढ़ता रह…..मंज़िल ज़रूर मिल जाएगी …..हम दोनों एक ही तो हैं …..तू मुझ में हुआ या मैं तुझ में …..बात एक ही है …..सांसारिक  आडम्बरों को छोड़ …..अपनी इच्छाओं पर काबू पा ….. जिनसे ज़िन्दगी  तुझे बोझल लगती हैं …...मेरा नाम सुमिर और अमर होजा ….अमर हो जा ….! रचना कन्हाई की ओर से भक्तजन को एक फरमान है कि भक्ति के बिना मेरी उपलब्धि नहीं , नाम जपो भक्ति करो …..ऐसी नसीहत देती मनमोहक प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! प्रभु प्राप्ति के लिए , प्रेम , सेवा और समर्पण सीढियां हैं , समझाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

बैठ अकेला दो घड़ी कभी तो ईश्वर ध्याया कर
मन मन्दिर में ग़ाफ़िला झाड़ू रोज़ लगाया कर

               नारायण हरि , गोविन्द हरि

रचना-87
          कान्हा तेरा नाम निराला लगता है

अब तो बस दे दो दरस ओ साँवरे
जग की ज्वाला में जल मन ढूँढे तेरी छांव रे ! अब तो ……
एक तेरी प्यास तेरी आस हर एक श्वास में
तुझ को पा जाऊँ तड़पता मन इसी विश्वास में
रिश्ते नाते तोड़ रख दी ज़िन्दगी भी दांव रे ! अब तो ….
न राधा हूँ न मीरा हूँ न तुलसी न सन्त कबीर
तेरा नाम ले भटक रहा हूँ बना बावरा एक फकीर
अब तो बता दे है कहाँ तेरा देश तेरा गाँव रे ! अब तो ……

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य में से )

कृष्ण अनुरागी भक्त के भाव हैं आज की रचना ! कान्हा मनमोहिना है उसका नाम उससे भी बढ़ कर ! तभी तो उसके सुमिरन में , भक्त दिन रात एक किये हुए है ! एक मय , मद का प्याला है हरि नाम , जिसके नशे में रहता है वैष्णव हर वक्त , उतरने से पहले ही पुनः मदमस्त ! रचनाकार मेरे भैया , उसी भक्त के भाव को यूँ व्यक्त कर रहे हैं …...कन्हाई …...कृष्णा …..तेरा नाम कैसा अनुपम है…... अमृत के घूंट की मानिंद…..मन चाहता है हर समय पीता रहूँ…..ताकि सरूर …...खुमारी …..उतरने न पाये …...मेरे लिए तो यही गंगाजल और यही शिव मन्दिर है …..हर पीने वाला…..नाम की मस्ती में सराबोर …..जग के मोह माया से विरक्त हो जाता है …...उसे हर तेरे नाम लेवा साधक में …..तेरे ही स्वरूप की झलक दीखने लगती है …..देवताओं को तेरा दर्शन उपलब्ध कहाँ …..वो संकुचित मन से आकाश मण्डल से …..भक्तों को तेरा प्रेम रस पीते देख …..मन ही मन दुखी होते हैं …...कन्हाई तुम से भी बड़ा नाम है श्री जु का …..जिसके तुम भी दीवाने हो …..तुम्हारी स्वामिनी …..आराध्या है वो …..राधा नाम की और महिमा जाननी हो ….,तो बृजमण्डल में जान लो …..उनके लिए राधा नाम …..मद….मय…..ही नहीं पूरा मयखाना ही है …...मधुशाला ही है ……! रचना कृष्ण नाम के सुमिरन को एक लत मानती है जो छुड़ाये नहीं छूटती , बल्कि दिन-ब-दिन सवाया होती जाती है ! यही कृष्ण प्राप्ति का साधन है ! ऐसी अलौकिक प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! भव से पार उतरने के लिए कृष्ण नाम की पतवार थमाने के उनके प्रयासों के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

सकल नशे इस जग दे उतर जान प्रभात
नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात

                    हे मनमोहना , मधुसूदन

रचना-88
मैं क्यों सोचूँ मेरे बारे मेरा ठाकुर सोचेगा
प्रभु तुम अन्तर्यामी , नमामि नमामि नमामि नमामि
तुम सबके मन की सुनते हो , सुनो दास के स्वामी
नमामि नमामि …..
क्या बोलूं कैसे बोलूं क्या मांगूं जिह्वा खोलूं
कभी तेरा नाम लिया प्रभु , मैं पापी खल कामी
नमामि नमामि …..
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )
परमात्मा अन्तर्यामी है , घट घट जाननहार , जानता है किसको क्या चाहिए ! इन्सान स्वार्थवश अपना लाभ चाहता है पर प्रभु अगर लाभ में हानि देखे , तो अपना फैसला दे देता है ! वो जो करेगा अच्छा करेगा , यही निश्चय कर उसकी रज़ा में रहो और उसे समर्पित हो जाओ ! ऐसे ही भक्त के भावों को , रचनाकार मेरे भैया यूँ बखान करते हैं …..अपने लिए मुझे सोचने की इच्छा ही नहीं …..मेरा भला बुरा किस में है ….मेरा ठाकुर मुझ से बेहतर जनता है …..मैं तो कब से अपना जीवन ….उस प्यारे के हाथों सौंप चुका हूँ …..मेरी ख़्वाहिशें क्या है ….पूरी करनी हैं या नहीं ….यह मेरे ठाकुर की मर्ज़ी है …..मेरा लक्ष्य क्या है …...उसे पूरा करना है या नहीं ….और राह में आने वाली दुश्वारियों को प्रभु ही जाने …...आज तक पल पल जिसने मुझे सहारा दिए रखा …..अब भविष्य में क्या होगा …..उसकी भी चिंता मुझे नहीं करनी है …..जो करेगा मेरा प्रभु सही करेगा …..उसकी इच्छा ही मेरी इच्छा है ….मेरी इच्छा है …..! रचना भक्त का पूर्णतया समर्पित भाव दिखा रही है # मैं राज़ी हूँ उसी रज़ा में , जिसमे तेरी रज़ा है प्रभु # ऐसी समर्पितभाव की प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! भगवान की मर्जी ही सर्वोत्तम है , का ज्ञान देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
जिस के सिर ऊपर तू स्वामी सो दुःख कैसो पावै
                घट घट वासी अन्तर्यामी मेरो कृष्णा

रचना-89
                कान्हा तुझको पा लेने पर
                    क्या पाने को बाकी है
जब से मिले हो कान्हा सब कुछ नया नया है
मेरी प्रीत भी नई है मेरा मीत भी नया है
मानों ऋतु बसंती नव नव सुमन खिले हैं
बिछुड़े हुए दो प्रेमी जैसे अभी मिले हैं
मेरी दोस्ती नई है तेरा बांकापन नया है
जब से मिले …..
संसार मे सर्वोपरि है भगवान की भक्ति , वो मिल गई तो दुनिया मे और कुछ नहीं चाहिए ! जीवन उसी का सार्थक है जो प्रभु प्रेम में रमा हुआ है ! बेमोल का सौदा है , जितना चाहो सुमिरन कर सकते हैं  , उसे आँखों मे बसाये रह सकते हैं ! ऐसे ही कृष्ण अनुरागी भक्त के बारे में रचनाकार मेरे भैया यूँ कहते हैं …...कन्हाई …...जिसको तू प्रेमवतारी मिल गया …..उसे और चाहिए भी तो क्या …..जब प्रेम घूँट पिलाने वाला भी तू ही हो ….तो कहना ही क्या …..तेरे माधुर्य रस की क्या कहूँ …..अजब सी मस्ती गजब की खुमारी है …..एक ओर  नाम की प्रेम मदिरा …...दूजी ओर दिलकश तेरी चितकन…… दोनों के सरूर में खोया हूँ …..अन्य जन भी इस मस्ती में  खोये रह सकते हैं ….. वो प्रेमदानी तो किसी को भी …...प्रेम बाँटने में संकोच नहीं करता …..और फिर नाम रूपी मद ….. मिल भी तो बेदाम रही है …..जीअ भर के पीओ …..जिसे नाम सुमिरन का नशा लग गया …..उसे कुछ और नहीं सुहाता …..खाने पीने में रुचि नहीं रहती …..नाम की मस्ती की खुमारी में ही डूबा रहता है …..ऐसी अजीब है भक्ति की फितरत …...अथाह समुद्र की तरह …..कितने ही मोती निकालते रहो …...और ढूँढने की लिप्सा बनी रहती है ….. सारी दुनिया खुली आँखों का सपना …...और हर जीव में कृष्ण का स्वरूप दिखने लगता है …..अपने नाम की खुमारी चढ़ाने वाला कान्हा  की ही …..छवि हर जीव में दिखने लगती है …...दिखने लगती है ….! रचना कृष्ण नाम की खुमारी और यही उसकी भक्ति है , को दिखा रही है , ऐसा नशा , जिसमे भूख प्यास का कोई अहसास नहीं ! भक्ति और सिर्फ भक्ति और उसी की खुमारी ! ऐसी माधुर्य रस से परिपूर्ण प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार धन्यवाद ! भक्ति ही आत्मा की खुराक है के सन्देश के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष ! 
  सभे नशे जग दे उतर जान प्रभात
नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात
                       परमधन मेरो राधेकृष्णा

रचना-90
             मैं दासों का दास कन्हैया तेरा हूँ
प्यार तुझसे हो गया कान्हा कहाँ जायें
इक तू ही तू नज़र आता है जहाँ जायें
दे दिया तुझको हृदय अब क्या बचा मेरा
तन मन धन ओ जीवन हो गया तेरा
अब तो तू मुझ में या मैं तुझ में समा जायें
प्यार तुझ से हो गया कान्हा कहाँ जायें !
      ( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी )

समर्पित भक्त के भाव हैं आज की रचना ! अपने परमपिता परमात्मा के प्रकाश पुंज का एक क़तरा ही तो हैं हम , लेकिन फानी दुनिया के प्रपंचों में उलझ हम अपने असली ठिकाने से भटक गए हैं ! रचनाकार , मेरे भैया को उसका अंश होने का पूर्ण ज्ञान है , विरक्त और समर्पित  वे जगतनियंता से गुहार लगा रहे हैं…..कन्हैया …..तेरे सेवकों का सेवक….मैं हूँ तो तेरा ही…..मुझे यह पूरा यकीन है…..यह माटी का शरीर…..इसका तन…..मन…..तेरा ही दिया है….यहां तक…..साँसों पर भी तेरा अख्तियार है…….मेरी अपनी होंद कुछ भी नहीं…...तेरे श्री चरणों की किंचित धूल मात्र हूँ….सम्मान देदो तो समर्पित …..तेरा ही जीव हूँ…...मात्र तेरे चरणों का ही सहारा….और इन्हीं श्री चरणों की कृपा का…...तलबगार हूँ…..मैं तो वृथा मिथ्या संसार की…..ठगनी माया में उलझ…..मेरे गोविन्द ….तुझे भूल गया था…..समझ न सका…..तेरा ही अंश हूँ …..अपनी मौलिकता भूल गया…..जैसा भी हूँ…..दुःखी या सुखी….हूँ मैं तेरा ही…..तुम मेरे सर्वेसर्वा ….मैं तेरा सेवक हूँ प्यारे …..असली खज़ाना मुझे दे दिया….पर इसे खोलने की कला…..सुमिरन रूपी चाबी तुम हो….तुझे पा लेने की इच्छा में …..मैं कुछ भी कर गुजरने को तैयार हूँ…...तेरा ही तो कतरा हूँ मैं….तेरा ही किंचित अंश…...मिला ले इस बूँद को …..अपने प्रकाशपुंज के….अथाह समुद्र में…..मिटा दे मेरी हस्ती को…..और स्वतमे समेट ले…..स्वतः में समेट ले…..! रचना समर्पित वैष्णव के मन के उद्गार हैं जो कन्हैया और स्वयं के मध्य आये माया के पर्दे को हटा देने की विनय है ! इस माया के बंधन को तोड़ कर ही श्रीहरि के हो पायेंगे ! ऐसी मर्मस्पर्शी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! प्रभु प्रदत्त इस शरीर को प्रभु भक्ति में लगा , उसी की स्तुति भजन में लगाने की सीख के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

तू देव मैं पुजारिन तुम ईष्ट मैं उपासक
यह बात अगर सच है , सच करके दिखा देना
भगवान मोरी नैया उस पार लगा देना
अब तक तो निभाई है आगे भी निभा देना !
       हरे कृष्णा , गोविन्द हरी

रचना-91
मैं ना चाहूँ तेरे बिन कोई और मेरे प्राण प्यारे
मैं दासों का दास कन्हैया तेरा हूँ
मुझ को है विश्वास कन्हैया तेरा हूँ
       ये तन तेरा ये मन तेरा
       ये मेरा जीवन धन तेरा
तेरी है हर साँस , कन्हैया तेरा हूँ
        मैं तो तेरी चरण धूल हूँ
        या चरणों मे पड़ा फूल हूँ
तेरे चरणों की आस कन्हैया तेरा हूँ

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य में से )

संसार आसार , मिथ्या और नश्वर है , भगवान सनातन , सत्य और शाश्वत ! संसार दुःखों का घर और प्रभु एकमात्र उनसे निवृति दिलाने वाले ! भक्तजन तो मूलतः प्रभु पर आश्रित हैं और अपनी जीवन डोरी उसके हाथों दे निश्चिन्त हैं ! रचनाकार मेरे भैया , ऐसे भक्त के भावों को कुछ यूं बयाँ करते हैं …..मेरे प्राणों से भी प्रिय …..मेरे कन्हाई …..तुझसे प्रिय मुझे कोई नहीं …..न ही तुझ बिन मेरा कोई और ठिकाना ही है …...मेरे माता ….पिता ….भाई …..बांधव …..मेरे मित्र एकमात्र तुम्हीं हो …..और ऐसा मेरा सौभाग्य है …..तेरी छत्रछाया में रह रहा हूँ …..तुझे पूर्णतया समर्पित …..तेरी ही रज़ा में रहता हूँ …..तुझ बिन मुझे कोई और भाता नहीं है…...मेरी सांसो पर तेरा अधिपत्य ….दिल की धड़कन तुम्ही से …..जड़ चेतन में तू ही समाया है …..सृष्टि के कण कण तू ही तू …..तेरा पार अभी तक कोई पा नहीं सका …...मुझे तुझसे बढ़ कर दुनिया मे कुछ भी नहीं …..मुझ में इतनी शक्ति ही नहीं है …..तेरी महिमा का गुणगान कर पाऊँ …..न ही मेरी भक्ति इतनी दृढ़ है …..तेरे चरणारविन्द की शरणागति पा सकूं …..तेरी वँशी की मधुर तान का अहसास …... चारों दिशाओं से अनुभव कर रहा हूँ …..तुझ बिन …..प्राणप्रिय …...मुझे कुछ भी भाता नहीं …...सोते जागते …..उठते बैठते …....सुबह शाम …..तेरा ही नाम मेरे ज़हन में रहता है …..ख्यालों में …..ख़्वाबों में भी तुम्ही तुम …..सच कहूं तेरे नाम बिन …..मेरी सुबह नहीं होती …..क्योंकि तुझ बिन मेरो कोई नहीं …..तुझ सा प्रिय मुझे कोई भी नहीं ……! रचना कान्हा को अपने जीवन का सर्वेसर्वा मानती है , ज़िन्दगी का  परम् लक्ष्य ! ऐसी कान्हा प्रति अगाध प्रेम की प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कन्हैया से जोड़ने के उनके प्रयासों के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

मुझे है प्रेम ईश्वर से जगत रूठे तो रूठन दे
भाई बन्धु और पिता माता , ये कुल है लाज लोगन की
सिर्फ ईश्वर की भक्ति में ये सब छूटे तो छूटन दे
मुझे है प्रेम …….

              मेरो गोविन्द , मेरो मनमोहना

रचना-92
      प्रभु प्रेम का प्याला पल पल पियो
             प्रेम से तुम प्यारे
मैं ना चाहूँ तेरे बिन कोई और मेरे प्राण प्यारे
तेरे बिन मेरा कोई ना ठौर मेरे प्राण प्यारे
तू मेरा माता पिता है तू मेरा बन्धु सखा है
नाम तेरा मेरे हाथों की लकीरों में लिखा है
औ तेरे हाथ में जीवन डोर मेरे प्राण प्यारे
मैं ना चाहूँ तेरे बिन कोई और मेरे प्राण प्यार

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य में से )

संसार मिथ्या है और यहां का मोह-जाल भी मिथ्या ! प्रभु ही की  लीला है उसने जीव को इस में भरमाया हुआ है ! असली ठिकाना तो कन्हाई के श्री चरण हैं , जिसकी प्राप्ति के लिए हम जग में आये हैं ! उसके सुमिरन भक्ति और जग से विरक्तिभाव से ही यह सम्भव है ! गोविन्द से नेह बढ़ाने और उसे ध्यान , भजन में याद रखने के लिए रचनाकार मेरे भैया यूँ आगाह कर रहे हैं …...प्रभु प्रेम और …... नामजप निरन्तर करते रहो …..उससे पिछले पाप कर्मों का निवारण हो जायेगा …...,संसार से विरक्त ….अनासक्त …..निलिप्त हो …..उसी के सांचे नाम का सुमिरन करो …...वही हमारा …...पिता माता …..बन्धु सखा …..और पालक है …..संसार में रहते प्रेम तो सभी से करो …...क्योंकि हर मन में उसी का वास है …..लेकिन मोह की जंजीरों में ….स्वयं को नहीं बांधो …...यह प्रेमजाल …..प्रभुभक्ति का बाधक है …..संसार से बांधता है …...प्रभु से उतना ही दूर …..धीरे धीरे मोह के बन्धनों को काटते जाओ …..प्रभु से आसक्ति रखो …..उसके भजन ध्यान में अनुरक्त रहो…..आखिर यही तो मंज़िल है हमारी …...प्रभु जीव की ओर ही तो निहार रहा है …..कब अपने लक्ष्य की प्राप्ति की राह पर …..चलना शुरू करता है ….. अब भी सम्भल …..गया वक्त तो आएगा नहीं …..अभी से प्रभु सुमिरन शुरू कर ले …..प्रभु मिलन हो जाये तो वारे न्यारे हो जाएं …..जीवन मे रस घुल जाए …...सभी कष्टों का निवारण हो जाये …..निवारण हो जाये ……! रचना सांसारिक मोह ममता को त्यागने ओर प्रभु प्रेम में अनुरक्त होने का संदेश दे रही है ! ऐसी शिक्षाप्रद प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद !  प्रभु प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है , समझाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

तेरे दर को छोड़ कर किस दर जाऊँ मैं
सुनता मेरी कौन है किसे सुनाऊँ मैं
जो बीती सो बीती भगवन आगे उम्र संभालूं मैं
चरणों मे जो बैठ के तेरे गीत प्रेम के गाऊँ मैं
जीवन अपना है पिता सफल बनाऊँ मैं
तेरे दर को …..

              हे गोविन्द हे गोपाल

रचना-93
भोग रहा जो सुख दुख तेरे कर्म हैं प्यारे
दर्पण-सा गर स्वच्छ न होगा हृदय तुम्हारा
कैसे प्यार करेगा ? तुमसे कृष्ण हमारा
झूठ कपट छल छिद्र हृदय में भरे रहेंगे
“हृदय विराजो” कान्हा से किस तरह कहोगे ?
उसे नहीं भाते हैं ये छल छिद्र तुम्हारे
मधुर भाव पर लूट जाता वो नंद दुलारा
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )
जीव संसार मे आता है अपने संचित कर्मों का फल निर्वहन करने के लिए ! गर कर्म अच्छे हैं किसी से राग द्वेष नहीं , धन लौलुप और किसी से वैर विरोध नहीं , सबसे प्रेम व्यवहार , किसी के प्रति ईर्ष्या का भाव नहीं , समर्पित भाव से सुमिरन कर रहा है तो आवागमन से छुटकारा अवश्यासम्भावी है ! ऐसे भक्त की मिसाल देते हुए , रचनाकार मेरे भैया कर्मभोग के सम्बंध में यूँ वर्णन करते हैं …..ऐ जीव …..तेरे दुःखों और सुखों का मूल तेरे संचित कर्म हैं …..गीता का भी यही उपदेश है …..जो भगवान में आस्था न रख …..स्वयं को कर्ता मान लेता है …..उसके कर्म उसे पुनर्जन्म …..और प्रभु अबलम्बी जो उसे कर्ता मान कर कर्म करता है ….आवागमन से निस्तार हो जाता है …..किसी भी कर्म में अपने को  कर्ता ना मानते हुए …..उसकी भक्ति में रम जा …..नादान …..उसी का सुमिरन किया कर …..कन्हैया से प्रेमभाव बढ़ा ले …...उसके भरोसे रहने वाले…..अत्यधिक नेह करने वाले को कान्हा का …..सनिध्य और अबिलम्ब मिल जाता है ….संचित कर्मों के कारण ही जीव पुनर्जन्म में आता है ….और भवसागर रूपी संसार मे आया जीव ….आवागमन में उलझ जाता है …..कन्हाई से प्रीति और विश्वास रखने वाला …..भव पार कर जाता है …..कृष्ण से प्रेम करने वाले को ही ….सभी सुख प्राप्त होते हैं …..उसे कृष्ण भी अपना लेता है …..इसलिए संसार से बिमुख हो ….उस कृष्ण से ही नेह लगा ले …..कृष्ण से ही नेह लगालें …..! रचना संसार से विरक्त हो कृष्ण सुमिरन पर बल दे रही है ….आवागमन से छूटने के लिए …..कान्हा से नेह और उसकी भक्ति अनिवार्य है ! ऐसी ज्ञानवर्धक प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद !  शुभ कर्म करने की प्रेरणा के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
बड़े भाग्य से मनुष्य देह मिली है
खा खा योनियों की मार , जीव हुआ है लाचार
चोट सीने पे चौरासी लाख झेली है
बड़े भाग्य …….
                   तारणहार श्री कृष्णा

रचना-94
           गलत है क्या और सही है ,
          क्या सब हरि की इच्छा है
कोई कुछ भी करे किसी का नाम ले
हमको तो आनन्द मिला है श्याम से
कोई किसी देव को पूजे या दानव को
हमको मतलब नहीं जगत के काम से
हमको तो आनन्द मिला है श्याम से
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )
जीव कर्म करता है , लेकिन उन कर्मों का निस्तार प्रभु के हाथ है ! वही जानता है जो हमने किया सही था या गलत ! हर पल कर्मानुसार हमारी परीक्षा हो रही है ! जैसे भाव और संस्कार जीव के होंगे वैसे ही वो कर्म करेगा ! इन कर्मों की विवेचना रचनाकार मेरे भैया ने यूँ की है …...जो कर्म जीव करता है ….वो प्रभु की इच्छानुसार ही होते हैं …..उनका फैसला भी प्रभु को ही करना है …..कौन सा कर्म गलत है और कौन सा ठीक …...जीव हर पल परीक्षा की तरह कर्म …..किये जा रहा है …..भक्ति की राह बड़ी कठिन है …. कदम सम्भल कर चलना होता है …..दिमाग से सोचने में दूर …...भाव से कृष्ण और उसकी भक्ति समीप ही है  …..मन के मनके से सुमिरन करते हुए …..यही तो जीव तेरी परख है …..तूने भक्ति के बारे में जाना क्या है ?......भवसागर को पार करने के लिए …...गुरु मन्त्र रूपी पतवार का होना ज़रूरी है …..गर गुरु का यथा योग्य सम्मान …. और गुरुमंत्र की विधा में सफल हो …..तब भवपार उतरना अवश्यासम्भावी है …..अपने इष्ट में , जिसे भी तू जपता है …..अपना ध्यान लगाया कर …..तेरे ख्वाब …..इच्छाएं सब पूर्ण हो जाएंगी …..अहंकार को …..प्रभु को प्रसादी रूप में भक्षण के लिए …..और अहं को भिक्षा रूप में …..हरि को दान करदे ….हरि को दान कर दे …..! रचना कर्मो के निपटारे को प्रभुइच्छा पर छोड़ रही है ! उनका निराकरण प्रभु को करना है ! हमारे कर्म ही हमारी परीक्षा है ! ऐसी ज्ञानवर्धक प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! गुरु दीक्षा और गुरु मंत्र को विरक्त मन से सुमिर अपने जीवन की राह प्रशस्त करने की विधा के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
अंत वेले सब तैनूं छड्ड जाणगे
कर्म तेरे सामने सब आणगे
अंत वेले ……
                  जय श्री कृष्णा

रचना-95
         दर्द ही तो प्यार की पहचान है
मस्त नज़र से छेड़ा है वो दर्द जिगर का क्या होगा
जो ज़ख्म बना है मरहम से उस ज़ख्म का मरहम क्या होगा

आशिक़ उसे हैं कहते जो अहिल-ऐ-गर्द हो
पल पल में ठंडी साँस ले और चेहरा ज़र्द हो

प्रेम एक जज़बा है , अहसास है , सांसारिक हो या हक़ीक़ी , उसका मूलमंत्र है व्याकुलता ! जब तक अपने प्रियतम के लिए मन तड़पेगा नहीं , उस के लिए विस्मृत न होगा , तब तक प्राप्ति असम्भव ! दरअसल दर्द , व्याकुलता का परिणाम हैं आँसू , जब तक   कलुषित अंतर्मन पवित्र न होगा दिलवर बैठेंगे कहाँ ? उसी व्याकुलता को रचनाकार मेरे भैया ने , हक़ीक़ी प्रेम के लिए कुछ यूं बयान किया है …...दर्द…..तड़प…...व्याकुलता …..प्रेम की पहली सीढ़ी है …...जिससे लगन का अहसास हो जाता है…..कितने लालायित हो अपने इष्ट से मिलने के लिए…..अपने मन से इसे मद्धम न होने दे…..लगन लगाये रह…..तुम्हें प्राप्ति की इतनी आशा है क्यों…..क्यों तड़प है तेरे मन मे उसके लिए…..तेरे आँसुओं से …..वो पिघलने वाला नहीं …...निष्ठुर …..निर्मोही …..पत्थर दिल…...भी तो वो है…..उसके प्रेम पुजारी हो…..रह नहीं सकते उस बिन….. उसी पर भरोसा है ना…..अधीर मत हो …..मन की मत मान …...याद रख एक दिन तुझे दीदार ज़रूर देगा…..परख रहा है तुझे …...तेरा प्रेम उससे कितना प्रगाढ़ है…...वही परमेश्वर सभी का सम्बल है…...अपने जीवन की पतवार उसे सौंप दे……* जीवन दा रथ इन्हें चलाना असीं ते केवल बहना ऐ …..हुक्म जो आवे मन्न के सन्तों हर वेले लाहा लैना ऐ *......वही हमारे रथ …..हमारे जीवन का सहारा है…...निराश मत हो …..वही जीवन नैया को किनारे लगाएगा……* मेरे हठीले शाम , मैं भी हठ पे अड़ा हूँ ठोकर लगा दे मैं तेरे रास्ते मे खड़ा हूँ *.......तेरी लगन को वो जानता समझता है…...बस धैर्य रख सुमिरन करता रह…...सांसारिक सहारे ढूँढेगा तो खता ही खायेगा…...सब यहां लाचार औरों की आस …..लगाये हुए हैं…….दुनियावी सहारे छोड़…..उसी पर भरोसा कर …...वही प्राणप्रिय सबका असली सहारा है …..असली सहारा है …… ! रचना सांसारिक बन्धनों से मुक्त कर कन्हाई में अनुरक्त रहने की ताकीद कर रही है ! इन झूठे रिश्तों और उनसे आशाओं को छोड़ उस प्यारे से ही आशा रखो , वो अवश्य पूरी करेगा ! ऐसी प्रेममयी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! संसार के मिथ्या सहारों को तज प्रभु से नेह लगाने की सीख के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में
है जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों मे

                    राधे कृष्णा , गोविन्द राधे