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आकांक्षा

आकांक्षा
मैं नहीं चाहता जीना
उस पत्थर कि तरह
जो चौराहे पर पड़ा
ठोकरें खाते खाते मिल जाता है रेत में
या जो वेगवान समय के
निर्झर पथ पर पड़ा
घिस जाता है
मेरी चाह है मैं आ सकूँ तुम्हारे काम
इसलिए मुझे छील डालो छेनी लेकर
मैं कुछ नहीं  बोलूँगा
और कुछ नहीं बोलूँगा
जब बन जाऊँगा
मील का वह पत्थर
जो राह दिखा सकेगा
भटके राही को
सदियों तक
या , तुम्हारी आत्मा को
शुद्ध करने वाली
एक मूर्ति
पूजा की.



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1 टिप्पणियाँ:

girish pankaj ने कहा…

bahut dinok baad dikhe aap. achchhi rachanaa ke sath. bahu jald mai ''kanhaiyaa'' ke sundar bhajan ke saath dikhoongaa apne blog mey. preranaa aap se hi mili hai. bhajan bhi lekhe jaane chahiye.

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