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कृष्ण मॉधुर्य पार्ट 1 उमा सारपाल भाग 5

रचना-96
दर्पण- सा गर स्वच्छ ना होगा हृदय तुम्हारा
देरी तो हमसे है कान्हा तू तो हर पल मिला हुआ है
दूरी तो हमसे है कान्हा तू तो हर पल मिला हुआ है
वो है नेट वर्क के जैसा जो प्रति पल चालू रहता है
हम मोबाइल बेसमेंट के जो धरती भीतर रहता है
तुरंत मिलेंगे सभी कनेक्शन धरती से बाहर तो आ
सभी मिलेंगे रस्ते भी गर नेविगेशन मिला हुआ है
       ( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी )

“ स्वच्छ मन में ही प्रभु का निवास है “ को चिरतार्थ करती है आज की रचना ! विकारों की मैल प्रभु को कदाचित पसंद नहीं ! उसे , कन्हाई को , अपने हृदय पटल पे असीन करने के लिए , मन को शुद्ध करना बहुत आवश्यक है ! इसी सम्बन्ध में रचनाकार मेरे भैया , हमें समझा रहे हैं…..गर तेरा मन शीशे की तरह ….साफ न होगा …..तो तेरा गोविन्द तुझ से प्रेम कैसे करेगा…..मन गर विकारों की गंदगी से…...कलुषित है तो मन मंदिर में …..बैठाने के लिए उसे कैसे बुलाओगे…..झूठ , कपट , द्वेष , ईर्ष्या और अहं …..उसे कतई पसंद नहीं…...उसे तो सरल और भोला भाव ही भाता है…...समर्पण और सरलता से रीझ जाता है…..स्वच्छ मन …..सरल स्वभाव से पुकारने …..पर दौड़ा चला आता है…....इंतज़ार कैसी कर रहे हो…..विकारों की मैल धुल जाने पर…..उसे अपने अन्तस में ही पाओगे …..कहीं बाहर तो वह है नहीं ……# मन विच्च मनमोहन बस लै जँगलां च की टोलना # …... स्वच्छ मन में उसका अनुभव होने लगेगा…..इसके लिए गुरु प्रदत्त…...नाम मंत्र…...सुमिरन  बहुत आवश्यक है….. जब तक सुमिरन…..नामजाप नहीं किया ….स्वयं को मानव नहीं…..दानव ही समझो…..गुरु प्रभु प्राप्ति का मार्ग बताने में…...सहयोगी होता है…...वही गुरुमंत्र रूपी…..पतवार तुम्हारे हाथ थमाता है…...जिससे प्रभु प्यारे के दर्शनों का….लाभ प्राप्त होता है…….इसी नाम मंत्र …..भक्ति से तेरे …..कलुषित पापकर्म कट सकेंगे …..तेरीे धन दौलत का वो मोहताज नहीं….. तुझे धनी बनाने वाला …...भला तुझ से क्या माँगेगा….तुलसी दल और केले के छिलकों पर रीझ जाने वाले……..भक्त वत्सल को…. तो तेरा निर्विकार प्यार चाहिए …...निर्विकार प्यार चाहिए ! रचना प्रभु प्राप्ति के लिए निर्मल मन और सुमिरन पर ज़ोर दे रही है ! स्वच्छ मन ही उसका बसेरा है ! ऐसी ज्ञानप्रद प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! मन को निर्विकार रखने की उनकी शिक्षा के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

नामदेव वांगूं इक दूध दी कटोरी नाल
देवकी यशोदा वांगूं भक्ति दी डोरी नाल
खिच्च पाके उहनूं घर च बुला लै
जँगलां च की टोलना , जँगलां की टोलना
मन विच्च मनमोहन बसा लै जँगलां च की टोलना !

            मेरा मनमोहन , मदन मुरारी

रचना-97
            जाओ जाओ जाओ स्वामी
            श्याम सखा से मिलने जाओ
द्वारपालों से कहने सुदामा लगे
श्याम से कहदो बचपन का यार आ गया
                       द्वार पर है खड़ा जिद पर है अड़ा
                        श्याम से कहदो बचपन का यार आ गया
देखकर के सुदामा की काया सकल
हो गया द्वार पर बैठा रक्षक विकल
                           कौन है श्याम कैसे उन्हें जानता
                            तू कहाँ से यहाँ पर गंवार आ गया
कृष्ण सुदामा मैत्री की लीला कथा है आज की रचना ! दोनों की संदीपनी ऋषि के गुरुकुल में मित्रता हुई , तदन्तर कन्हाई द्वारकाधीश हो गए , सुदामा दीनहीन निर्धन ही रहा ! भार्या सुशीला ने सुदामा को समझाया कि कृष्ण , आपके मित्र , द्वारकाधीश हैं , उनसे जाकर अपनी व्यथा सुनायें , वो आपकी सहायता ज़रूर करेंगे ! इसी प्रसंग को रचनाकार मेरे भैया ने बहुत सुंदर शब्दों से यूँ शिंगारा है …..पतिदेव …..स्वामी …..अपने मित्र कृष्ण से मिलने जाएं …..वे आपकी व्यथा सुन आपकी सहायता ज़रूर करेंगे …..उनसे बतादो ना आप कैसे गरीबी में दिन काट रहे हो …..आपके बच्चे कैसे रोटी के लिए तरसते हैं …...आपकी झोंपड़ी पर छत के नाम पर छप्पर तक नहीं है ….आप जाईये और उन्हें दान के पुण्य की कथा सुना …..दान के लिए प्रोत्साहित करें …..कृष्ण आपके मित्र हैं ….. वे आपकी अवश्य मदद करेंगे …..अधिपति होते हुए आपका सहारा बनेंगे …..वे जगन्नाथ हैं जग का पेट भरने वाले …..उनके लिए गरीबी घटाना क्या मुश्किल है …..उनसे यह भी जानें आप से ऐसा कौन सा नीचकर्म हुआ …... जिसके बदले हम गरीबी भोग रहे हैं …..मैं पड़ोसिन से तीन मुट्ठी तन्दुल …..चावल…..मांग कर ले आई हूँ …...यही हमारी ओर से उनके लिए तोहफा है और यही आपकी ओर से …...प्रणाम की एवज में दी जाने वाली राशि  …..वो घट घट की जानने वाले कृष्ण कन्हाई …..स्वयं ही हमारी गरीबी का अंदाज़ लगा लेंगे …..उन्हें कहने की तो कोई ज़रूरत नहीं …..वे आपके मन की जान लेंगे…..मन की जान लेंगे …..! रचना अन्तर्यामी कृष्णा का गुणगान कर रही है , उसे कोई कष्ट बताने की ज़रूरत नहीं , भक्त के भाव को समझ लेता है , बशर्ते आपकी भावना शुद्ध हो , समर्पित भाव हो ! ऐसी प्रेमपगी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कन्हाई से सच्ची प्रीति रखने को प्रेरित करने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष!
अरे द्वारपालों कन्हैया से कहदो
दर पे सुदामा गरीब आ गया है
भटकते भटकते ना जाने कहाँ से
महलों के इतना करीब आ गया है
               मेरो भक्तवत्सल कन्हाई

रचना-98
जिसको दुनिया ठुकराती है वो मेरा प्यारा होता है
मीत बना मनमीत मेरे मत बिसरा देना
शरण तुम्हारी आया हूँ मत ठुकरा देना
धन्य भाग जो तुम ने मुझको मीत बनाया
एक अभागा उठा प्रेम से गले लगाया
कभी जुदाई का मुझ को अब दुःख न देना
मीत बना मनमीत …….

          ( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी )

संसार मे तरह तरह लोग हैं ! कुछ ऐसे हैं जो धन लिप्सा , ऐश ऐश्वर्य को ही जीवन का ध्येय मानते हैं ! प्रभु से विमुख , दुनियादारी , मोह माया में उलझे स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं ! संसार से विरक्त , प्रभु को कर्ता मान , उसी की रज़ा में रहने वाले , उन्हें भाते नहीं , ऐसे भक्तों को प्रभु , निज जन मान अपना आश्रय देते हैं और यही लोग परमेश्वर को भाते हैं ! उन साधकों के विषय मे रचनाकार मेरे भैया यूँ कहते हैं …...जग की नज़र में जो विमुख हैं…..दुनिया भले ही उन्हें पसन्द न करे …....ठुकरा दे …...मगर मोहे ऐसे विरक्ति ही पसन्द हैं…..आम लोगो जैसे नहीं …..उनमें विशेषता होती है …...जो मेरी शरणागति हो जाता है …...मेरी रज़ा में रहता है …..उसे मैं भी पूर्ण आश्रय दे देता हूँ …..और मुझे उस पर बड़ा मान होता है …..मेरा प्रिय होता है वो …..ऐसे वैष्णव के लिए मेरे द्वारे …...सदा खुले रहते हैं …….ऐसा प्रेमीजन  प्रेमभाव से मुझे …..पत्र फूल ,जल भी चढ़ाता है …...नित्य प्रति नियम से मेरी …..पूजा अर्चना करता है …..प्रेमभाव का ही भूखा हूँ मैं ……..भक्त भले ही स्वयं को .मेरा दास समझता रहे …...लेकिन मुझे वह अति प्यारा होता है …...जो समर्पित भाव से अपना सर्वस्व मुझे अर्पित कर देता है …...मैं भी उसे शरणागति दे…..उससे कोई कृपा छिपाता नहीं हूँ…...उसे भजन सुमिरन से मालामाल कर देता हूँ…... उसे भव से पार करने का ज़िम्मा मेरा होता है …..दुनिया से तिरस्कृत , जगत को भले ही न भाये ….पर वही मेरा हरमन प्यार होता है …...जिसने मेरी शरण ली …...मुझ में निष्ठा रख …..अपनी जीवन डोरी मेरे हाथ मे दे दी …..अर्जुन हो या सुदामा …...उन जग में हारे हुओं को …..जीत दिलाता हूँ …..जीत दिलाता हूँ ……भव पार कराता हूँ ……! रचना प्रभु द्वारा प्रेमी जन की रक्षा , उसकी अपार कृपा का वर्णन कर रही है ! प्रभु को समर्पित , उस की रज़ा में रहने वाले ही भाते हैं ! उसको कर्ता मान , हर काम उसकी सेवा समझ ही करें ! ऐसी प्रेम पूरित और सर्वस्व उसीको समर्पित कर देने की प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! जीवन की डोरी भगवान के हाथ छोड़ देने की सीख के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

मुझे है प्रेम ईश्वर से जगत रूठे तो रूठन दे
सिर्फ ईश्वर की भक्ति में यह सब छूटे तो छूटन दे
भाई बन्धु और सुत दारा , यह कुल है लाज लोगों की
प्रभु का भजन करने में अगर छूटे तो छूटन दे
मुझे है प्रेम ……

          हे गोविन्द हे मनमोहना

रचना-99
                   ईश्वर उवाच
प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर प्रभु को नियम बदलते देखा !
अपना मान भले टल जाये जन का मान न टलते देखा !
जिनका ध्यान विरंचि शम्भु सनकादिक से न सम्भलते देखा !
उनको ग्वाल सखा मण्डल में , लेकर गेंद उछलते देखा !
जिनकी वक्र भृकुटि के भय से सागर सप्त उबलते देखा !
उनको ही यशोदा के भय से अश्रु बिंदु दृग ढलते देखा !!

आज की रचना भक्त की अनुनय विनय नहीं , बल्कि भक्त पर प्रसन्न हुए प्रभु का वरदहस्त , आशीर्वाद है ! अपने भक्त का मान बढ़ाने और उसे अपना अभिन्न अंग मानते हुए , प्रसन्न हो , अपने साधक के आगे , विनम्र हो , जो वरदान दिया है , उसे रचनाकार , मेरे भैया , ने इस तरह स्पष्ट किया है.....वत्स...मैं तेरे भाव से....अति प्रसन्न हूँ....समर्पण भाव से....तुम मेरे शरणागत ...हो गए हो....विमुख ....विरक्त ....हो गए हो....संसार से....अब तो मुझे....तुझ को अपनाना ही होगा....बहुत तरह से.....तेरा मेरे प्रति प्रेम.....परखता रहा हूँ .... धैर्य....लगन....और आस्था में....तुम सफल हुए हो.....इसलिए अब तुझे.... तू मेरा .....का सम्मान देता हूँ ....जिस तरह....अपनी खुदी को मार....अश्रुपूरित नेत्रों से....मुझे हर पल...... स्मरण करते रहे हो....मैं तो तेरे इस भाव का..... कर्ज़दार ही हो गया हूँ ....देखता रहा हूँ....कैसे मुझ पर....बलि बलि जाते...रहे हो....मैंने हर कसौटी पर....तुझे परखा वत्स....तुम सफल हो गए हो....अब तो मुझे भी.....तुझे अपनाना ही होगा....तुम भक्ति भाव में....पूर्ण हो...सांसारिक लिप्सा को....त्याग चुके हो....वैराग्य हो गया है तुझे....सांसारिक बन्धनों ने....बहुत फंसाने की ....कोशिश की तुम्हें....लेकिन तुमने....मेरे लिए....किसी की परवाह नहीं  की....तूने मेरे लिए....सर्वस्व न्योछावर.... कर दिया ....अब बारी मेरी है.....मैं भी अब तेरा  हूँ....तुझे प्राप्त हो गया हूँ.....अपनी मनोबांछा ....पूरी कर मेरे अपने....तूने जप .....तप....और साधना से.....मेरी प्राप्ति कर ली है....अब तुम मुझ में....समाहित मेरे ही अंश हो....देखना....यह संसार....यह भक्त जन .....कैसे तुझे .....सर आँखों पर बिठाते हैं....कितनी तेरे लिए....उनके मन में...श्रद्धा होगी और....तुम उनके आदर्श होंगे....आदर्श होंगे...! प्रभु प्रेमी , सच्चे श्रद्धालु के भाव से प्रसन्न भगवान भी द्रवित हो जाते हैं , रचना यह सन्देश दे रही है ! राह तो मिल ही गई है क्यों न हम भी इसी राह के बटोही बनें ! ऐसी सुंदर , भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! भक्ति मार्ग पर लाने के उनके यत्नों के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक मांगलिक शुभाशीष !

प्रेम के बन्धन में माधव में बन्ध गए , प्रेमियों ने जो बनाया बन गए !
जान मीरा की न राणा ले सका नाग काले से नारायण बन गए !....प्रेम के....
भाव तुलसीदास का पूरा किया , छोड़ मुरली धनुषधारी बन गए ! प्रेम के.....

                हरे कृष्ण गोविन्द  हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवाय !

रचना-100
अहंकार ना भक्ति का भी करना प्यारे
भाव के भूखे हैं भगवन भाव मन में लाइये
अश्रु का उपहार देकर बोलिये प्रभु आईये
              आईये प्रभु आईये
वो नहीं है दूर तुझ से ढूँढना  बेकार है।
है तुम्हारे मन के अंदर वो तुम्हारा यार है
साँवरे के प्यार में बस बावरे हो जाइये
                आइये प्रभु आइये

( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य में से )

निरहंकारी जीवन जीने की प्रेरणा दे रही है आज की रचना ! सब कुछ जीव को प्रभु प्रदत्त है सिर्फ गर्व ही है जो उसके अपने मन की उपज है और यही अहं मनुष्य को गर्त में ले जाता है ! इसी अभिमान से सावधान करते हुए रचनाकार मेरे भैया यहां तक समझा रहे हैं ...... …..अपनी भक्ति का तुम अहं मत करना …..तुम से बढ़ कर भी जग में बहुत से भक्त हैं …..सुनो …..दान कर रहे हो तो …..निरभिमानी होकर ऐसे गोपनीय करो …..एक हाथ दान करे …... दूसरे हाथ को पता भी न चले …..कोई चर्चा नहीं कोई दिखावा नहीं …...किसी की मदद कर दी …..उसे भूल जाओ …..उसकी चर्चा में भी …..अपने मुँह मियाँ मिट्ठू नहीं बनते रहो …..अपना ही गुणगान न करते रहो …...दया पात्र को नीचा दिखाने की …..अहसान जताते रहने की …..प्रवृत्ति भी ठीक नहीं …..सुमिरन करते हुए मन का मनका घुमाओ …..तल्लीन होकर भजन करो …..आडम्बर छोड़ …..प्रभु में मग्न होकर …..ऐसी मस्ती में रहो …..साथ वाले को भी तेरे सुमिरन का पता न चले …..ऊँचे ऊँचे बोल …..औरों को चुप रहने की हिदायत …..कर भक्ति सिर्फ दिखावा है …..गर्व है ….जो भी काम करते हो …..प्रभु को समर्पित करते जाओ …..कर्ता वही है ….उसकी सेवा के नाम पर ही हर काम करो …. तुम्हारी इस सेवा को भी …..अंतर्यामी प्रभु ही जानें …...दुनिया नहीं …..अभिमान में आ अपना गुणगान न किये जा …..अहंकार प्रभु को बिल्कुल भी नहीं भाता ….अहंकार वश जो भी काम होगा निष्फल होगा …..अहं में की भक्ति भी निष्क्रिय हो जाएगी …..भक्ति तो सभी करते हैं …..पर मन मे भक्ति का अभिमान करते हुए …..जताते भी रहते हैं …..यह एकार्थ है…..एकार्थ है …..! रचना किसी भी कर्म को प्रभु सेवा मानती हुई विनम्र , विनीत भाव मे रहने की ताकीद है ! अभिमान पतन का सूचक है इसे त्यागने की हिदायत के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार, धन्यवाद ! दिखावे और आडम्बर रहित , निरभिमान कर्म करने की उनकी शिक्षा के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !

तू न कर बन्दे मान , मान नहीं हरि को भाता है
जो बलि करे है मान , उस का बल घट जाता है
रावण जैसे बलवान मार कर परे गिराता है ! तू न कर ….
जो धनी करे है मान उसका धन घट जाता है
राजा से कर कंगाल दर दर भीख मंगाता है ! तू न कर….
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              मेरो गिरिधर गोपाल , मेरो साँवरा

रचना-34
                 राधिका
तू मुझमें मैं तुझमें राधे , एक दूजे में समाए
भांति भांति की लीला रचने दुनिया में हम आये
हम दोनों हैं एक कोई ये , एक विरला ही जाने
अलग अलग तन होने पर भी , एक हमें पहचाने
एक शक्ति के भाग हुए दो पाया मानव रूप
मगर वास्तव में है अपना नित्य एक स्वरूप
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )
श्री राधे स्वामिनी हैं कन्हाई की , हृदयेश्वरी , विशुद्ध प्रेम और आत्मा गोविन्द की ! एक ही शक्ति के दो स्वरूप , दो तन और एक आत्मा ! तभी कन्हैया की वे पूज्य , प्राणेश्वरी और हृदय स्पंदन हैं ! आज की रचना में रचनाकार , मेरे भैया , कान्हा की ओर से श्री जु की स्तुति यूँ कर रहे हैं …...मेरी राधिके …..मेरे प्रेम की तुम पहचान हो …..तुझ जैसा ही भोला …..विशुद्ध अलौकिक . निश्च्छल और निःस्वार्थ प्रेम है तुझसे मेरा…..इस तन के प्राण तुम्हीं हो …..बिन धड़कन जैसे दिल शान्त हो जाता है …..तुझ बिन मैं भी वैसा ही हूँ ….तुम अमर प्रेम का तराना …..मेरा सम्मान हो …..मेरी तो वँशी जब भी धुन छेड़ती है …..राधे नाम ही उच्चरित करती है ….. असीम गुणों की खजाना ….. बरसाने धाम की धुरी तुम्हीं हो …..तुम्हीं से बरसाने धाम की ख्याति है…..सुन्दर इतनी कि चन्दा भी शर्मा जाए …...प्रेम पुजारिन हो तुम …..प्रीत में कोई तेरा सानी नहीं …..मेरी तो हो ही पूज्य …..मेरी स्वामिनी …..मेरी आराध्या …..तभी तो तेरे प्रेम की भीख माँगने के लिए …..यहां वहां झोली फैलाये दान माँगता रहता हूँ …..योगियों की का ज्ञान …..मुनियों का ध्यान केंद्र तुम्हीं हो …..मैं भी तो अपने भक्तों से …...अपनी प्राप्ति के लिए …..राधे नाम का सुमिरन ही करवाता हूँ …..राधे राधे जपवाता हूँ …..! रचना कान्हा के राधे प्रति अगाध प्रेम और सम्मान को दर्शा रही है ! भक्तजन भी राधे नाम सुमिरन से ही भव से निस्तार हो कन्हाई को पा सकते हैं ! ऐसी भावभीनी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! राधे नाम ही कृष्ण प्राप्ति का मार्ग है , समझाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
राधे तेरे चरणों की गर धूल ही मिल जाये
सच कहती हूँ मेरी तक़दीर बदल जाये
                जय श्री राधे

रचना-35
     तेरे प्रेम में पागल मनवा भागे तेरी ओर
ओ कृष्ण कन्हैया प्यारे , हम आये तेरे द्वारे
अब तोड़ जगत के सारे , रिश्ते हम तेरे सहारे
ये डगमग डोल रही है भवसागर में नैया
इक तेरी आस कन्हैया , अब तू ही लगा किनारे
ओ कृष्ण कन्हैया ……
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )
इक विह्वल मन का वेदनायुक्त निवेदन है कन्हाई से आज की रचना ! भक्त का मन कन्हाई के प्रेम में अटका हुआ है , खदशा हैं  प्रेमरोग लगा कहीं छलिया , चित्तचोर कहीं छिप ना जाये ! रचनाकार मेरे भैया भक्त के भावों का यूँ निरूपण कर रहे हैं …..कन्हाई …..तेरे प्यार का शैदाई हो गया हूँ …..देखना कहीं पल्ला छुड़ा चले मत जाना …..तुम सङ्ग प्रेम की डोरी से बन्ध चुका हूँ चित्तचोर , देखना छूटने की कोशिश नहीं करना …..जबसे तुमसे नेह लगा है …..पल प्रति पल प्रेम पिपासा बढ़ती ही जा रही है …..मानो तुम सावन के घनघोर बादल …..और मैं स्वाति बूँद पाने वाला चकोर हूँ …..जब से  तेरी लगन लगी है …..मिलने की तड़प बढ़े जा रही है …..इस बढ़ती तड़प में …..चित्तचोर …..छलिया …..कहीं छिप नहीं जाना …..हिरन की पानी की तलाश की तरह …...मैं भी तेरे प्रेम में छटपटा रहा था ….अब विरक्त हो तेरी चरण शरण में आ गया हूँ …...तुम दामन नहीं छुड़ाना …...कन्हाई तुम दामन नहीं छुड़ाना …..! रचना भक्त का सविनय निवेदन है कन्हाई से , शरणागति देने के बाद मन में पूर्णतया बसे रहना , पीछा नहीं छुड़ाना , भक्ति को और भी परिपक्व बनाना ! ऐसी हृदयस्पर्शी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! मन मे कान्हा प्रेम बसाये रखने के दृढ़ इरादे की इच्छा पैदा किये रखने की उनकी ताकीद के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
भगवान मेरी नैया उस पार लगा देना
अब तक तो निभाई है , आगे भी निभा देना
दलबल के साथ माया घेरे जो मुझको आकर
तुम देखते ना रहना , झट आके बचा लेना
भगवान मेरी …….
                     तरणतारण मेरो गोविन्द

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