ह्रदय के भेद
मैं ह्रदय के भेद सारे खोल देना चाहता था
एकला था मैं तुम्हें भी साथ लेना चाहता था
तुम ना समझे मेरी भाषा
मेरे ह्रदय कि भावना को
तुम ना समझे
कुछ तो हैं मेरी विवशताएँ
हैं सीमायें मेरी कुछ
कैसे समझाउं
तुम्हें वह सब
जग कि भाषा में
गर समझना चाहते हो तो,
ह्रदय कि मूक भाषा से समझ लो
रौशनी के झुण्ड से,
छिटकी किरण से
पा सको तो मार्ग पा लो
फूल हो तुम ,
मुझको बस कांटा समझ
अपना बना लो
मैं तुम्हारा हूँ
मगर, तुमने मुझे अपना न माना
मेरी बातों पर किये शक
सिर्फ मुझको गैर जाना
मूल्य है जिसका नहीं कोई,
तुम्हें मैं, दोस्त ऐसा प्यार देना चाहता था
मैं ह्रदय के भेद सारे खोल देना चाहता था.
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7 टिप्पणियाँ:
aapki is rachanaa me ek sundar geet ke roopantaran ki sambhavananihit hai. badhai. yeh aur behatar geet banega. adbhut bhavnaaye hai isame. dheere-dheere aap bhav-shikar kee or barh rahe hai.
बहुत अच्छा लगा आपका ये गीत भी। हर रचना ही दिल को छू जाती है कुछ तो है इस लेखनी मे जो पाठक को बाँध लेता है । शुभकामनायें
होली की बहुत-बहुत शुभकामनायें.
बहुत सुन्दर रचना.........
छिटकी किरण से
पा सको तो मार्ग पा लो
फूल हो तुम ,
मुझको बस कांटा समझ
अपना बना लो
मैं तुम्हारा हूँ
bahut hi sundar hai .
dil ko chhu gayi aapki rachna..
तुम ना समझे मेरी भाषा
मेरे ह्रदय कि भावना को
तुम ना समझे
कुछ तो हैं मेरी विवशताएँ
हैं सीमायें मेरी कुछ
कैसे समझाउं
तुम्हें वह सब
जग कि भाषा में
गर समझना चाहते हो तो,
ह्रदय कि मूक भाषा से समझ लो
सुन्दर और प्रवाहमान अभिव्यक्ति है भाई ! बधाई!!
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