ईIvरचना नम्बर 1
श्री गणेशाय नमः
वक्रतुण्ड महाकय सूर्यकोटि समप्रभः !
निर्विघ्नं कुरुमे देव सर्वकार्येषु सर्वदा !!
किसी भी शुभ कार्य आरम्भ करने से पहले भगवान का आह्वान किया जाता है कि वे साक्षात प्रगट हो कार्य को निर्बिघ्न सम्पन्न करवाएं ! विद्या सम्बन्धी कार्यों में माँ सरस्वती से प्रेरणा ली जाती है ! उसी अधीन , कृष्ण माधुर्य-1 को आरम्भ करने से पहले रचनाकार मेरे भैया ने माँ शारदे का आह्वान यूँ किया है …..वीणा का वांदन करने वाली सरस्वती माँ …..अपनी वीणा के स्वर को मेरी नस नस में भर …..मेरे तन को संगीतमय करदे ….इस धूल भरे मन को स्वच्छ कर ….... जीवन को आईने सा साफ बना दे …….वन्दना के मुखर निर्जीव स्वरों को …..अमर करदे …..इस शरीर को ऐसा जगमगाने का वर दे …..इसका कोई दुश्मन न हो…..न ही किसी द्वारा जीता जा सके …....अपने विकारों …..काम…..क्रोध …..मद….लोभ ….पर नियन्त्रण पा …..विद्या को अपनालूँ …..हे विद्या की देवी माँ शारदे …...तेरे दर्शन पा …..यह लोक सत्य-शिव- सुन्दर बन जाये …...सत्य-शिव-सुन्दर बन जाये ……! रचना श्री गणेश है सुंदर रचनाओं से सुसज्जित कृष्ण माधुर्य का , जिसे सम्पूर्ण करने में आदि गणेश , श्री कृष्ण अपना वरदहस्त रचनाकार मेरे भैया के सिर पर रखें यही हार्दिक शुभकामना है ! उत्तम प्रस्तुति के लिए उन्हें साधुवाद एवं स्नेहिल मङ्गलाशीष !
विघ्न हरण मङ्गल करन श्री गणपति महाराज !
प्रथम निमन्त्रण आपको पूर्ण करियो काज !!
श्री गणेशाय नमः
रचना-२
कृष्णम वन्दे जगद्गुरुं
एक शब्द भी सद्गुरु का गर ,पा जाओ तो तर जाओ
भटक रहे हो कहाँ बावरे , अब तो अपने घर आओ
कहाँ कहाँ और कैसे कैसे जन्म लिए तुमने प्यारे
मानव जन्म पाय के भी , अब क्यों बैठे हो मन मारे
कहीं समय ना निकल जाए , यह फिर न आगे पछताओ
एक शब्द भी सद्गुरु का गर ……
(श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )
श्री कृष्ण ही जगद्गुरु हैं , शुभारम्भ से पहले , वीणा वादिनी माँ शारदा के वन्दन के उपरांत , सद्गुरु को स्मरण करते हुए रचनाकार मेरे भैया यूँ श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं …..सद्गुरु ….आपके श्री चरणों मे नतमस्तक हूँ …..नमन स्वीकारिये …..यह मरुस्थल सा जीवन …..आपके चरणारविन्द में आ ….महकती बगिया ही तो बन गया है …..आपके सौंदर्य की मैं क्या कहूँ …...आप का रूप सौम्य …..शांत …...ज्ञान भरपूर …..विलक्ष्ण…..बौद्धिक…..स्वरूप है …...पीताम्बर धारी मेरे कन्हाई …..इसीलिये चाँद …..सूर्य …..पृथ्वी …..सितारे ….गगन भी आपके श्री चरणों मे …..नमन करते हैं …..श्री मुख से निकली वाणी का एक एक शब्द …..संसार से मुक्त करने योग्य है …..इसीलिये भगवान से ज़्यादा महिमा …...गुरु ही कि होती है …..आपके दर्शनमात्र से ही …..सारे भ्रम मिट जाते हैं …..आप योग …..ज्ञान की पराकाष्ठा हो …. आप ही में मोहे …..राम….कृष्ण …..शिव ….और उनकी शक्ति …..माँ भगवती के दर्शन होते हैं …..आप ही ईश्वर स्वरूपा हैं …..सब धर्म….तीर्थ …..धाम….आप ही में निहित हैं …...ऐसे गुणी मेरे कृष्णा …..आपकी शरणागति हूँ …...शरणागति हूँ …..! रचना अपने सद्गुरु को समर्पित एक भक्त के हार्दिक उद्गार हैं जिन्हें समर्पित करते हुए वो उल्लासित है ! कृष्ण जगद्गुरु तो हैं ही , हम सभी के गुरु ! ऐसी श्रद्धापूर्ण अभिव्यक्ति के लिये , मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! श्री चरणों में नतमस्तक हो मनोभावों से अवगत कराने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
मैं तेरी पतंग कृष्णा , मैं तेरी पतंग
हवा विच उड़दी जावाँगी कि डोर हत्थों छड्डीं ना
मैं लुट्टी जावाँगी , मैं लुट्टी जावांगी !
श्री कृष्णा वन्दे जगद्गुरुं
रचना-3
ऐसा कोई भजन बने जो , तडपा दे तुझको कान्हा
हर सुनने पढ़ने वाले के , दिल को धड़का दे कान्हा
बहुत रुलाया बहुत सताया तूने , तुझ पर असर नहीं
चाहत है ऐसी रचना की , जिसको सुनकर तू तड़पे
रचना मेरी तुझको मेरे , द्वारे तक ला दे कान्हा
ऐसा कोई भजन बने जो ……
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )
रचनाओं का क्रम शुरू करने से पहले प्रभु से सविनय निवेदन है रचनाकार मेरे भैया का , वे सर्वगुण संपन्न प्रभु के कुछेक गुणों का वर्णन करने की हिम्मत और बल दें , भाव दें ताकि प्रभु को अपनी लेखनी से प्रसन्न कर पाएं ! रचनाकार कहते हैं …..
हे भगवन ….आपसे विनती है दास की …..कलम में इतना सा तो भक्ति भाव भर दें …..जिससे वह आपके ….कुछेक गुण ही सही ….का वर्णन कर सके …… आपका ध्यान आते ही यह मन …..तरंगित हो उठे …..विरह की तड़प अविरल आँसू बरसाया करे …...ऐसे मार्मिक शब्दों का चयन कर तुम्हें पुकारूँ …...मेरी सदा सुन तुम आये बिन रह ना पाओ …..रचना का एक एक शब्द …..तेरे प्रेम से सना हो …..गाऊँ भी तो तेरा प्रेम छलके …..मेरा अन्तस तेरे ही प्रेम में रंग जाए …...और तुझे उसी प्रेम रंग से …...सराबोर कर दूं …...भाव बिकल हो जब तुझे पुकारूँ …...तो मन मोम की तरह नम्र हो पिघल जाए….मिलने की ऐसी प्रबल आकांक्षा हो …..अपने प्राण ही दांव पर लगा दूँ …..मिलने की ऐसी तीव्र इच्छा है …..तेरे सेवक स्वप्न की ……कहते हैं …...तू मुझ में ….या मैं तुझी में समा जाऊँ …..मुझे अपनी प्रसिद्धि …..अपनी शोहरत नहीं चाहिए ……,कोई हो भी तो ….मेरी इच्छाओं का दमन करदे प्रभु ….दमन करदे ……! समर्पित भाव से भक्त अपने विकारों का दमन कर प्रभु से भक्तिदान और उसका निरोल प्यार चाहता है ! प्रेम की बिना भक्ति हो भी नहीं सकती , मन में विरह की पीड़ा अनिवार्य है ! ऐसी प्रेमपूरित प्रस्तुति के बिना मेरे भैया योगेश जी का आभार, धन्यवाद ! भक्ति से पहले अपने आराध्य से प्रेम होना अत्यावश्यक है , का ज्ञान देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
तेरी भक्ति मेरे मन भायी , तुम्हारा प्रभु प्यार चाहिए
जब से लगन मेरी तुम से लगी है
तब से ही मिलने की ममता जगी है
मेरी उजड़ी कुटी में इकबार आइये इकबार आइये
तेरी भक्ति मेरे मन भायी ……
सच्चिदानंद , सर्व्यापक करुणासिन्धु
रचना-4
छोडूंगा ना प्यारे तेरी प्रीत कृष्णा
मेरे मीत कृष्णा मनमीत कृष्णा
तू ही मेरी परम्परा है तू ही मेरी संस्कृति
तू मेरा रिवाज तू ही रीत कृष्णा ! छोडूंगा ना …..
तू ही मेरी दोस्ती तू ही मेरी दुश्मनी
तू ही मेरी हार है तू ही जीत कृष्णा ! छोडूंगा ना…
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )
कृष्ण माधुर्य से हर भक्त प्रभावित है , कोई नर हो या नारी , बड़ा हो या छोटा , सर्वगुण संम्पन्न कृष्ण प्रेमावतारी की लीलाओं में हर कोई डूबना चाहता है ! रासलीला हो या गैयन चारण , माखन चुराना हो या मैया से डाँट खाने की लीला ! ऐसे ही लीलाओं से प्रभावित एक छोटा सा बच्चा कृष्ण बनना चाहते हुए अपनी मां से जो कुछ कह रहा हैं , उसे रचनाकार मेरे भैया ने खूबसूरत शब्दों में यूँ बांधा है …..मम्मी , मुझे कृष्ण बना दे …..मैं कृष्ण हूँ तो नहीं ….पर मुझे कृष्ण की तरह सजा ही दे …..सिर पर मोर मुकुट …..गले में मोतियों की माला …...और कटि पर पीताम्बरी बांध दे …..सुन्दर सी बाँसुरी …..छोटी सी एक गाय ….हाथ मे रखने को छोटी सी छड़ी …..और फिर गैयन चराने का अभ्यास भी करा दे …..बृज में मैं भी माखन खाने की लीला किया करूँ ….माखन स्वयं भी खाऊं …..और सखा ग्वालों को भी खिलाऊँ …....मम्मी , सखियां भी तो चाहियें …..जो गोरी और सुंदर हों …..उन सङ्ग मुझे रास रचाने की कला भी तो सीखा दे …..भले ही मैं कृष्ण नहीं हूँ …..पर कृष्ण की तरह दिखूं तो सही …..कृष्ण प्रेम की तरह ….मेरा प्रेम भी निर्दोष हो …..कान्हा के निश्च्छल प्रेम की राह मुझे भी बता दे …..निश्च्छल प्रेम की राह मुझे भी बता दे …..! रचना योगेश्वर कृष्ण की बाल लीलाओं से आनंदित और प्रभावित बच्चे के मनोभाव हैं ! कृष्ण कन्हाई को अपना आदर्श मानते हुए उन्हीं की भक्ति में प्रवेश करने की अनजानी कोशिश , संस्कार तो धार्मिक बन ही रहे हैं ! बचपन में ही कृष्ण लगन लगाती प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! अपने बच्चों को यूँ ही भाव मे लाने के उनके प्रयत्नों के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
छोटी छोटी गइयाँ छोटे छोटे ग्वाल
छोटो सो , छोटो सो मेरो मदन गोपाल
घास खावें गइयाँ , दूध दोहें ग्वाल
माखन खावें मेरो मदन गोपाल
जय गोविन्द हरि
रचना-5
हरि अपने आँगन कछु गावत
तनक तनक चरणन सों नाचत , मन ही मन रिझावत
बाँह उठाई धौरी कारी गइयन टेरि बुलावत
कबहुँक बाबा नन्द बुलावत , कबहुँक घर में आवत
माखन तनक अपने कर लै तनक बदन में लावत
यशुमति देखत ये लीला हर्ष आनन्द बढ़ावत
सूर श्याम के बाल चरित ये नित देखत मनभावत
( सूरदास जी )
*होनहार बिरबान के होत चिकने पात* को चिरतार्थ करती रचना बाल कृष्ण की बाल सुलभ चेष्टाओं का बड़ी बारीकी से मंथन कर रही है ! कैसे ब्रह्म ने बैठना , पलटना , तोतला बोलना , घुटरणी चलते खड़े होना और गइयन प्रति अपना प्रेम दर्शा दिया ! रचनाकार मेरे भैया ने विस्तार से वर्णन यूँ किया है …..छोटो से हैं पारब्रह्म कन्हाई ….सभी को हर्षित करते हुए …..करवट बदलना सीख गए हैं ….बैठने की चेष्टा के साथ ….पेट के बल रेंगते हुए …..कब घुटरणी चलने लगे ….किसी अबलम्ब को ले खड़े होना सीख लिया …..धीरे धीरे कदम बढ़ाने की कला समझ आ गई ….किलकारी मार ….चीखना ….दूध माँगना भी आ गया है ….साथ लेटी मैया को हाथ पाँव मार …..जगाना ….मम्मा …..मम्मा कर मैया और सुलभ शब्द …..बब्बा …..बब्बा कर बाबा कहने को उद्यत हैं …..गैयन सामने हैं …..उन्हें पुकारते …..पुकारते चलना भी आ गया है …..पाँव में बंधी पायल की …...रुनझुन से सभी का मन…..मोह रहे हैं …..सँसार को सर्वस्व देने वाला ब्रह्म …..स्वयं नङ्ग धड़ंग …. सभी को हर्षित किये हुए है …..धीरे धीरे …..चलते ...चलते गैयन के पास जा पहुँचते हैं…..कुछ मुँह में डालने को न मिलने पर …..गैया का मुँह ही चाटने लगते हैं …..गैया भी कन्हाई को यूँ चाटने लगी ….मानो अपने बछड़े का सारा प्रेम …..कान्हा पर ही उढेल देगी …..आँगन में कान्हा को न पा …..घबराई मैया ने कान्हा को जो देखा …..वो नज़र बचा मिट्टी ….खा रहे हैं …..नटखट श्याम को चुप देख मैया को सन्देह हो गया …..मुँह खुलवाने की कोशिश करती रही ….और स्वयं को निर्दोष बताने के लिए …..कान्हा ने मैया कहने के लिए ज्यों मुँह खोला ….मैया ने तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के दर्शन कर लिए …...दर्शन करते ही वो घबरा गई ….मेरे लल्ला के अन्दर ये सब क्या …..कहीं कुछ हो नहीं जाए मेरे लल्ला को …..कन्हाई भी मैया को डरी देख …..ध्यान बदलने के लिए …..भूख का बहाना कर …..माखन मांगने लगे …..लल्ला को भूखा जान मैया …..सब कुछ भूल …..माखन लौंदा लेने चली गयी …..सारे संसार का भरण पोषण करने वाला …...कन्हाई आज स्वयं मैया से माखन मांग रहा है …..माखन मांग रहा है …..! रचना कन्हैया की बाल सुलभ चेष्टाओं से हर्षित कर रही है , गोपाल कृष्ण का गायों से नेह जन्म प्रदत्त ही है ! ऐसी मनोहारी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कान्हा की बाल लीलाओं से हर्षित करने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
मईया मोहे दाऊ बहुत खिझायौ
मोसो कहत मोल को लीनो तुम यशोमति कब जायो
कहा करौ यह रिस के मारे खेलन ह्वै नहीं जात
पुनि पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात
गोरे नन्द यशोदा गोरी तू कत स्यामल गात
तू मोहि को मारन सीखी दाऊहिं कबहुँ न खीझै
मोहन मुख रिस की ये बातें जसुमति सुन सुन रीझै
सुन कान्हा बलभद्र चबाई जनमत हीं तो धूर्त
सुर स्याम मोहे गोधन की सौंह हौ माता तू पूत
बाल गोपाल कृष्ण कन्हाई
रचना-6
कान्हा माखन खाने मेरे आँगन आओ कभी कभी
मुझे चिढ़ाकर मुझे खिझाकर , भोग लगाओ कभी कभी
मैं भी जाकर कभी शिकायत करूँ यशोदा रानी से
मेरी मटकी फोड़ के कान्हा ! मुझे सताओ कभी कभी
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )
माखन के रसिया कन्हाई को माखन बहुत पसंद है विशेषतया मैया का खिलाया माखन , उसमें मैया का वात्सल्य जो भरा है ! मैया जसुमति से इसी माखन के लिए जो कान्हा की बात होती है , उसे रचनाकार मेरे भैया ने बहुत सुंदर शब्दों से यूँ सजाया है
…...मैया …..तेरा माखन औरों से अलग है …...जिस पर तेरा लल्ला …..बलि बलि जाता है …..माखन निरा माखन ही नही …..इसमें तेरा वात्सल्य भी तो मिला है …..बहुत रसमय है खाने में …..तेरे नेह के कारण …..मिश्री सा मीठा लग रहा है …..ऐसा स्वादी …...खाने वाला स्वयं भी खाये …..औरों को भी खिलाता जाये …..मेरा मतवाला मन तो …..माखन खा ….मोर की तरह …..झूमने लगा है …..मेरे पास कोई भी आये …..सभी को माखन खिलाता हूँ …..यह माखन माखन नहीं …...सभी के मनों को बिलो …..उनमें से निकला प्रेम रूपी माखन है …..जिसके लिए मैं जाना जाता हूँ …..सभी के मन में प्रेम का संचार कर देता हूँ …..भले ही कोई काला हो या गोरा …..मैया हो तुम …..तेरे माखन को सभी पसन्द करते हैं …...क्योंकि तुम मेरी मैया हो …..इतना पावन पुनीत है यह माखन …..जैसे कोई मंदिर …...या शिवद्वारा हो …...माखन दे दोगी तो ठीक है …..नहीं तो माखन चोर भी नाम है मेरा …..फिर नहीं कहना …..चुरा भी लूँगा …..और अपना मुँह हाथ लथपथ कर लूँगा …..तब तुम ही मोहे माखनचोर नंदलाला कहोगी …..माखनचोर नंदलाला कहोगी …..! रचना कान्हा की माखन के प्रति लालसा को दर्शा रही है , वो चाहे नवनीत हो या उनके मन को मथ कर निकाला हुआ प्रेम ! ऐसी प्रेमपगी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! माखन खाने , चुराने की लीला को दर्शाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
मैया तेरे लाल ने मक्खन लुटया , दस्स की करां
नाले मेरे सिर तों दुपट्टा खिचिया दस्स की करां
दूध दही बेच के मैं बच्चे पालदी , देख करतूत मैया अपने लाल दी
दूध मेरा रोढया मक्खन लुटिया , दस्स की करां
मैया तेरे लाल ने ……
माखनचोर कृष्ण कन्हाई
रचना-7
गोपी सत्य कहत है मैंने ही माखन खायो
इसमें क्या अपराध है मेरा इसने मोहे ख़िलायो
मोसे इसने कहा एक दिन अपने घर को आने को
सखा सहित आने को इसने मोको वानर सहित बुलायो
मैया गोपी सत्य कहत है …..
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )
एक गोपी के मनोभाव हैं आज की रचना ! कन्हैया माखनचोर उसके घर से माखन चुराकर खाने आये और इसी बहाने वो मैया यशोदा से उसकी शिकायत करने जाए ! माखन स्वयं लुटाना चाहती हैं गोपियाँ कान्हा के दीदार के लिए , बाल स्वरूप है इसलिए चोरी का दोष कान्हा को देती हैं ! गोपियों के इसी भाव की रचनाकार मेरे भैया ने बहुत सुंदर झांकी यूँ दिखाई है …..कान्हा प्यारे …..कभी मेरे घर भी माखन खाने आया करो ना …..मुझे चिढ़ा और खिझाकर …..मेरे सामने माखन की प्रसादी पाया करो ना …...कभी कभार मेरी मटकी फोड़ …..मुझे भी तो दुःखी किया करो …..तब मैं भी कभी …..जसुमति मैया से तुम्हारी …..शिकायत करने जाऊँ ….. अकेले नहीं …..ग्वालवालों के सङ्ग …..माखन खाने …..और बन्दरों को सङ्ग ले …..मेरे आँगन में दही लुटाने आओ …..तुम चोरी कर आगे आगे ….मैं तेरा पीछा किया करूँ …..और जब कभी......मेरी पकड़ में आ जाओ …..मैं तुम्हारी बलैयां ही तो ले लूँ …..तुम माखन चुरा कर …..बांटकर खाने से खुश हो जाओ …..और मैं तेरी बाँसुरी पर मोहित हो जाऊं …...हे यदुवंश के दीपक …..मेरा सारा जीवन इसी मस्ती में खोया रहे …...तेरी प्यारी वँशी पे मैं कुर्बाँ मेरे कान्हा …..कभी कभी वँशी से मेरा नाम लेकर ….. मुझे भी पुकार लिया करो …..मुझे भी पुकार लिया करो ……! रचना गोपियों के कृष्ण प्रति अथाह प्रेम को दर्शा रही है ! वे चाहती हैं माखन चुराने की लीला कर कन्हाई उनके मन को चुरा ले और कृष्ण ही उनके मन मे बसा रहे ! ऐसी अनन्य प्रेमपूरित प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! गोपियों के कृष्ण प्रेम की एक झलक दिखाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
श्याम सुंदर सवेरे सवेरे तुम वँशी बजाया करो ना
नाम ले ले के मुरली में मेरा मुझे घर से बुलाया करो ना
गोविन्द हरि , हरे मुरारी
रचना-8
कान्हा माखन खाने मेरे आँगन आओ कभी कभी
मुझे चिढ़ाकर मुझे खिझाकर भोग लगाओ कभी कभी
मैं भी जाकर कभी शिकायत करूँ यशोदा रानी से
मेरी मटकी फोड़ के कान्हा ! मुझे सताओ कभी कभी
कान्हा माखन खाने ……
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )
गोपियाँ स्वयं ही कान्हा को आमन्त्रित करती हैं अपने घरों में माखन चुराने के लिए और जब कन्हाई माखन चुरा ग्वाल बालों और बन्दरों को बांट कर खाते हैं तो मैया यशोदा से शिकायत करने आ धमकती हैं ! कान्हा जिस तरह से मैया को अपनी सफाई दे रहे हैं उसका चित्रण है आज की रचना ! रचनाकार , मेरे भैया कान्हा का पक्ष मैया के सामने यूँ कहते हैं …..मैया मेरी …..मैं झूठ नहीं बोलता ….माखन मैंने खाया है ….जैसा यह गोपी कह रही है …..इसने ही मुझे घर मे बुलाकर खिलाया ….तू ही बता इसमें मेरा क्या दोष है ?.....सुन मैया …..एक दिन इसने मोकु कहा ….अपने बाल सखाओं …..और वानरों सहित मेरे घर मे …..माखन खाने को आ जाना …..मैं चला गया ….तू तो जानती है …..जहां कोई मोहे प्यार करे …..मैं वही तो जाता हूँ …..वो चाहे शबरी के जूठे बेर हों …...या विदुरानी के भेंट किये सूखे चने …..सिर्फ वहीं जाता हूँ …..जो भाव से मुझे बुलाये …..बिना प्रेम वालों के तो मैं …..कतई नहीं जाता …..वहां भले ही छप्पन भोग ही क्यों न हों …..इस गोपी ने प्रेमपूर्वक मोकू बुला लिया …..और माखन के छोटे से लौंदे पर ही …..इसने मुझ से क्या क्या लीलाएं करवाई …..,नृत्य करवाया मोसो ….मेरी वँशी की तान सुनने को …..यह गोपी बहुत बेताब रहती है …. मेरे पीछे पीछे मिन्नतें करती रहती है …..इसलिए वँशी की तान मैंने इसे सुना …..आनन्दित कर दिया …..लेकिन इस के मन में तो छल था …..जो तुझे शिकायत करने चली आई …..चोरी का दोष लगाने …..और उसे साबित करने के लिए ….इसने जबरदस्ती मेरे मुँह पर …..दही लिपटा दिया है …..इसने मेरे भरोसे को तोड़ा है …..इसलिए कभी इस पर यकीन नहीं करूंगा …..मैं कृतघ्न नहीं हूँ ….इसका माखन खा मैं मुकरूँगा नहीं ….मैं जन्मों जन्मों तक का इसका अहसानमंद रह …..इसकी चाकरी करता रहूँगा…..,मैं उन पर बलि बलि जाता हूँ …..जो मेरे भरोसे ही रहते हैं …..मेरे भरोसे ही रहते हैं ! रचना कान्हा का प्रेम , अपने भक्तों प्रति दर्शा रही है , जो भी अपने जीवन की डोरी कान्हा हाथ सौंप देते हैं , कन्हाई उनका ख्याल रखते हैं ! ऐसी भावभीनी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! गोपी की तरह , कान्हा से मिलने की चाह दिखाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
मेरा छोटा सा मन लेलो राधारमण नज़राना
प्रेम भक्ति का देदो खज़ाना
गोविन्द हरि , माखनचोर कन्हैया
रचना-9
मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो
भोर भई गैयन के पाछे मधुवन मोहे पठायो
मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो
ग्वाल बाल सब बैर पड़े हैं
बरबस मुख लिपटायो
मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो
( सूरदास जी )
गोपियों से कान्हा के माखन चुराने के उलाहने सुन सुन यशोमति मैया अधीर हो गयी हैं और उसने कन्हाई को ऊखल से बांध दिया है ! ऊखल से बंधे कान्हा को फिर भी मैया की चिंता है , कहीं वो अपने लल्ला से रूठ न जाये ! जिस तरह कान्हा मैया से आगे से चोरी न करने का वचन करते हैं उसको रचनाकार मेरे भैया ने बहुत मार्मिक शब्दों में यूँ विस्तार दिया है …..मेरी मैया ….अब कहीं तुम मोसे रूठ नहीं जाना …..तुम जानती हो मोहे मनाना भी तो नहीं आता …..महतारी …..मुझ पर शक क्यों करती हो …..क्या तुझे मो पर तरस नहीं आता ? …..मुझ पर अपनी कृपा रख …..और मुझे मेरे किये अपराध के लिए …..माफ करदे ना …...इन ग्वाल बालों ने मेरा मुख …..जबरदस्ती माखन से लिपटा दिया …...और गोपियों तेरे पास आ …..मोहे चोर चोर कहने लगीं …...बुरा ज़माना आ गया है मैया …..सभी के सभी छलने लगे हैं …..कपट की है मुझ से …...मुझे बांध मेरी मैया …..तुम भी तो दुःखी हो रही होगी …..मुझ से मुँह घुमा अपनी भीगी आँखों को …..साफ करती होगी …..मैया , तुम प्रसन्न रहो …..मुझे तू भी चोर ही मान ले …..अब और मत सताओ …..वचन देता हूँ तुझे मैया …..आगे से किसी की न मटकी फोड़ूँगा …….न ही माखन चुराऊँगा …. सिर्फ़ दिल ही चुराया करूँगा ….कान पकड़ता …...नाक रगड़ता हूँ …..मेरे बन्धन खोल दे और अपने गले से लगा ले …..अपने गले से लगा ले ……! रचना मैया और कान्हा के अत्यधिक प्रेम को दर्शा रही है ! इधर मैया कान्हा को ऊखल से बांध द्रवित है , उधर कन्हाई मैया के दुःखी होने के लिए स्वयं को भागी मानते हैं ! ऐसी प्रेमपूरित प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! माखन चोरी की लीला हूबहू दिखा देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
कान्हा माखन खाने मेरे अँगना आओ कभी कभी
मुझे चिढ़ाकर , मुझे खिझाकर भोग लगाओ कभी कभी
माखनचोर मेरो श्यामसुंदर
रचना-10
हरि हरि हरि सुमिरन करौ
हरि चरणारविन्द उर धरौ ! हरि हरि …..
हरि की कथा होइ जब जहाँ
गंगाहू चलि आवै तहाँ ! हरि हरि …..
जमुना सिन्धु सरस्वति आवै
गोदावरी विलम्ब न लावै ! हरि हरि …..
सर्व तीर्थ कौ बासौ तहाँ
*सूर* हरि कथा होवै जहाँ ! हरि हरि ……
कन्हैया अब थोड़े बड़े हो गए हैं पौडर अवस्था में हैं ! भैया बलदाऊ की गैयन चारण में सहायता करनी चाहते हैं ! मैया से आज्ञा और कुछ जरूरी चीजों की डिमांड कर रहे हैं ! मैया से कन्हाई के वार्तालाप को रचनाकार , मेरे भैया ने यूँ बयान किया है …..मैया , मैं भी अब गौ चारण के लिए जाऊँगा …..इस तरह से दाऊ भैया की मदद भी हो जाएगी …...मैया …..अब मैं बड़ा हो गया हूँ …...चलने फिरने लगा हूँ…...इसलिए घर के काम काज में हाथ बंटाया करूँ …...ऐसा कर मेरी मैया ….मुझे एक लाठी …..और एक बाँसुरी दिला दे …...लाठी से गैयन को हांका करूँगा …...बाँसुरी की तान पर …..गैयन को टेर लगा …..बुलाया करूँगा …..मैया मेरे बहुत से सखा हैं …..जो मुझे बहुत प्यार भी करते हैं …...उनके लिए भी भोजन बांध दे …..नाश्ता उन्हीं के साथ कर लूँगा …..गैयन चरा कर …..खेल कूद कर …..कभी हार और कभी जीत कर …...गोपों के सङ्ग …...सन्ध्या होने तक …..वापिस आ जाऊँगा …..वापिस आ जाऊँगा …..! रचना कन्हैया के गौ चारण और मित्रों से समान व्यवहार को दर्शा रही है , जातपात को , प्रेम में कोई जगह नहीं ! ऐसी प्रेमपगी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! घर के कामकाज में बड़ों की सहायता करने का फर्ज दिखाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
हरि अपने आँगन कछु गावत
तनक तनक चरणन सों नाचत , मनहिं मन रिझावत
बाँह उठाई धौरी कारी गैयन टेरि लगावत
कबहुँक बाबा नन्द बुलावत , कबहुँक घर मे आवत
माखन तनक अपने कर लै तनक बदन में लाबत
यशुमति देखत यह लीला हर्ष आनन्द बढ़ावत
सूर स्याम के बाल चरित नित देखत मनभावत
श्यामसलोना कृष्ण कन्हाई
रचना -11
गज़ब की बांसुरी प्यारे बजाई तूने मनमोहन
जिसको सुन , दीवानी बनके राधा आई मनमोहन
चली सब गोपियाँ भी छोड़ कर घर बार को अपने
तेरी मुरली लगी जब उनके , इक इक नाम को जपने
ये क्या जादू तेरी मुरली में है , यह कैसा सम्मोहन
गज़ब की बाँसुरी …..
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )
मनभावन ग्वाला है एक , जो गैयन को लकुटी से हाँकता और वँशी की मधुर तान से अपने वश में किये हुए है ! गौ को माँ सा सम्मान देने वाला कोई और नहीं , मुरलीधर कन्हाई ही तो है ! वँशी की मधुर टेर से तीनों लोकों में उत्सुकता बढ़ जाती है , वनस्पति तक लहलहाने लगती है ! उन्हीं का गुणगान करते हुए रचनाकार मेरे भैया , अपने भाव यूँ प्रकट कर रहे हैं …..वँशी की मधुर तान छेड़े …..एक ग्वाला जंगल जंगल घूम रहा है …..गैयन का रखवारा है वो …...गोविन्द …..गोपाल …..उसकी बाँसुरी की धुन …...सबके मन को ऐसी छूती है ….नर नारी तो क्या …..पशु पक्षी भी अछूते नहीं रहते …...वो मुरलीवाला ऐसा …..कील लेता है सभी को …..प्रभावित कर लेता है …..सभी उससे आकर्षित हो जाते हैं …..मुरली को जब ओंठों पे रख …..मधुर तान छेड़ता है …..तीनों लोकों में यही …..मधुर धुन सुनाई पड़ती है …..देवलोक के वासी भी …..सुनने को लालायित हो उठते हैं …..मीठी …..सुरीली तान …..कानों के द्वारा ….मन को छूती है …..पुलकित ही तो कर देती है …..मन तरंगित हो उठता है …..ऐसा लगता है जैसे तन के पिंजरे को छोड़ …...मन उसी के साथ मिल गया …..मन उसी के साथ चला गया …..! रचना वंशीधर का गुणगान कर रही है , साँवला सलोना है ही इतना मनोहारी , सभी के मन को लुभाता है ! ऐसी प्रशंसनीय प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कृष्ण रँग में सभी को सराबोर करने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
इक सलोनी साँवली सूरत के गुण गाती हूँ मैं
जिस तरफ भी देखती हूँ सामने पाती हूँ मैं
जब बजाये बाँसुरी बृज मण्डल भी रुक कर चले
ऐसी वँशी की वो धुन है , खुद में खो जाती हूँ मैं
इक सलोनी साँवली ……
वंशीवारौ मेरो गोविन्द
रचना-12
मैया तेरा श्याम सलोना सब को प्यारा लागे री
हर कोई ये कहता फिरता श्याम हमारा लागे री
श्याम हमारा लागे री
ना जाने क्या जादू है री मैया इसके दर्शन में
सम्मोहित से हो जाते हैं सब इसके आकर्षण में
सबको अपना कान्हा बिटुआ प्राण पियारा लागे री
श्याम हमारा लागे री
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )
कृष्ण के समानता और सद्भावना के गुणों की ओर इंगित करती है आज की रचना ! एक ग्वाल सखा अपनी मैया से कान्हा का गुणगान कर रहा है जो पिछले दिन कलेवा करते हुए उसने कान्हा में देखे ! ग्वाल बाल के उसी भाव को रचनाकार मेरे भैया ने शब्दों में यूँ पिरोया है …..मैया ….तुझे आनन्ददायक एक बात बताता हूँ …..,आज कान्हा ने मेरा दिया ग्रास …..खा लिया मैया …..उसे तेरा बनाया साग बहुत स्वादिष्ट लगा …...गाय चराते चराते हमें भूख लग गई …..जहां हम सभी खाने के लिए बैठे …..कान्हा भी हमारे बीच में बैठ गया …...अपनी अपनी पोटलियां खोल …..सभी ने इकट्ठी ही रख लीं …...इस तरह हम सभी ने मिलकर खाया …..कोई चटनी ही लाया था …..किसी का भरता भी था …..सब कुछ सांझा था …..इसलिए अपने पराये की बात ही नही थी …..सभी ने सब चीजों का स्वाद चखा …..और सभी को …..सब स्वाद पता चल गए …..वहीं पास ही में गौधन भी चर रही थीं ….. जैसे ही कान्हा ने बाँसुरी की तान पर …..उनके नाम लेकर पुकारा …..सभी भागती भागती आ खड़ी हुईं …...उनके नाम जो कन्हाई ने रखे हुए हैं …...एक और बात बताऊँ मेरी महतारी तोकूँ …...बलदाऊ भैया ने कितने ही राक्षसों को मार गिराया है …..कईयों को कान्हा ने भी मारा …...मैया सारे के सारे रूप बदल बदल कर आये थे …..जिसने भी बलदाऊ …..कान्हा से टकराने को आया….सभी के सभी मारे गए …..सभी के सभी मारे गए …..! रचना कान्हा की समानता और जातिपाति से ऊँचे उठ , प्रेम भावना और सौहार्दय का संदेश दे रही है ! सभी की जाति सही शब्दों में इंसानियत है , जातपात में क्या रखा है ! ऐसी सौहार्दयपूर्ण प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार, धन्यवाद ! वैमनस्य को मिटा , सभी से प्रेम करो कि सीख देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
अव्वल अल्ला नूर उपाया , कुदरत दे सभ बन्दे
एक नूर ते सभ जग उपजिया कौन भले को मन्दे
जगताधार कृष्णा , सृजनकार कृष्णा
रचना-12
मैया तेरा श्याम सलोना सब को प्यारा लागे री
हर कोई ये कहता फिरता श्याम हमारा लागे री
श्याम हमारा लागे री
ना जाने क्या जादू है री मैया इसके दर्शन में
सम्मोहित से हो जाते हैं सब इसके आकर्षण में
सबको अपना कान्हा बिटुआ प्राण पियारा लागे री
श्याम हमारा लागे री
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )
कृष्ण के समानता और सद्भावना के गुणों की ओर इंगित करती है आज की रचना ! एक ग्वाल सखा अपनी मैया से कान्हा का गुणगान कर रहा है जो पिछले दिन कलेवा करते हुए उसने कान्हा में देखे ! ग्वाल बाल के उसी भाव को रचनाकार मेरे भैया ने शब्दों में यूँ पिरोया है …..मैया ….तुझे आनन्ददायक एक बात बताता हूँ …..,आज कान्हा ने मेरा दिया ग्रास …..खा लिया मैया …..उसे तेरा बनाया साग बहुत स्वादिष्ट लगा …...गाय चराते चराते हमें भूख लग गई …..जहां हम सभी खाने के लिए बैठे …..कान्हा भी हमारे बीच में बैठ गया …...अपनी अपनी पोटलियां खोल …..सभी ने इकट्ठी ही रख लीं …...इस तरह हम सभी ने मिलकर खाया …..कोई चटनी ही लाया था …..किसी का भरता भी था …..सब कुछ सांझा था …..इसलिए अपने पराये की बात ही नही थी …..सभी ने सब चीजों का स्वाद चखा …..और सभी को …..सब स्वाद पता चल गए …..वहीं पास ही में गौधन भी चर रही थीं ….. जैसे ही कान्हा ने बाँसुरी की तान पर …..उनके नाम लेकर पुकारा …..सभी भागती भागती आ खड़ी हुईं …...उनके नाम जो कन्हाई ने रखे हुए हैं …...एक और बात बताऊँ मेरी महतारी तोकूँ …...बलदाऊ भैया ने कितने ही राक्षसों को मार गिराया है …..कईयों को कान्हा ने भी मारा …...मैया सारे के सारे रूप बदल बदल कर आये थे …..जिसने भी बलदाऊ …..कान्हा से टकराने को आया….सभी के सभी मारे गए …..सभी के सभी मारे गए …..! रचना कान्हा की समानता और जातिपाति से ऊँचे उठ , प्रेम भावना और सौहार्दय का संदेश दे रही है ! सभी की जाति सही शब्दों में इंसानियत है , जातपात में क्या रखा है ! ऐसी सौहार्दयपूर्ण प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार, धन्यवाद ! वैमनस्य को मिटा , सभी से प्रेम करो कि सीख देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
अव्वल अल्ला नूर उपाया , कुदरत दे सभ बन्दे
एक नूर ते सभ जग उपजिया कौन भले को मन्दे
जगताधार कृष्णा , सृजनकार कृष्णा
रचना-13
मैया तेरे श्याम ने मक्खन लुटिया दस्स की करां !
नाले मेरे सिर तों दुपट्टा खीचिया दस्स की करां !
जदों घर जानीयाँ तां सस्स लड़दी , मार मार ताने मैनूं घरों कढ़दी !
पुच्छदी ये श्याम तेरा की लगदा , दस्स की करां ! मैया तेरे….
बंसरी तेरी दी श्यामा मिट्ठी तान वे , बंसरी तेरी ऐ साडी जिंद जान वे !
बंसरी बजा के सारा जग लुटिया , दस्स की करां ! मैया तेरे….
रचना कृष्ण अनुरागियों के कृष्ण के प्रति पूर्ण अनुराग को दर्शा रही है ! सभी जन व्यक्तिगत रूप से कन्हैया को सिर्फ अपना मानते हैं , इसी भाव को ले रचनाकार , मेरे भैया , मैया यशोदा से मुखातिब हैं....जसुमति मैया….तेरा यह सांवला सा....कन्हैया सबका प्यारा है…हर जन यही समझता है....वह तो मेरा ही है....उसके रूप में...न जाने कैसा आकर्षण है....मगनातीस की तरह....सबको अपनी ओर….खींच लेता है....प्रत्येक उस पर बलिहारी है....प्राणों से भी प्यारा है....वह अपने भक्तजनों को....गोपियाँ सोचती हैं….कान्हा मेरा है….और सिर्फ मेरा….मेरा सजना….मेरा प्रियतम….यहां तक सम्मोहित हुई….वंशी की तान में भी….वे अपना ही नाम सुनती….और समझती हैं….इस नटखट ने भी तो….प्रेमावतारी हो….प्रत्येक से प्यार किया....और कितनी ही ….शादियाँ भी रचालीं....इस प्रेममूर्त ने …..रास रचाते….अनेकों को आलिंगन में भी लिया…. इतना हो जाने के बाद भी….वह लिप्सा रहित….निर्लेप….विरक्त…होने के नाते….आजन्म कुंवारा ही तो है….अलौकिक….अद्वितीय है ….उसका प्रेम….मैया...तेरा लाडला...हम सभी का रक्षक….सहचर....और सब की आशा है....जिस अमृत को ….पाने की सभी को….तमन्ना है वह….तेरा सपूत....हमारा कन्हैया ही तो है...यह ही...इसका नाम ही….हमें भवसागर से ….पार उतरने में ….सहायक होगा…..सहायक होगा ….! रचना कान्हा के प्रति समर्पित भाव को व्यक्त कर रही है ! ऐसी मनोहारी , मर्मस्पर्शी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कान्हा के प्रति शरणागति हो सुमिरन को प्रेरित करने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक मङ्गल आशीष !
यह कहना साफ गलती है तुम्हें क्योंकर मनाऊँ मैं !
सुनो अपने रिझाने का सरल रास्ता बताऊँ मैं !
रिझाया था मुझे भीलनी के झूठे चार बेरों ने !
न झूठे खट्ठे मिट्ठों पर कभी आँखे लगाऊँ मैं !
न रीझुं गान गप्पों से न रीझुं तान ठप्पों से !
बहा दो प्रेम के आँसू , चला बस आप आऊँ मैं !
हरे कृष्णा , हरे मुरारी !
रचना-14
नन्द के दुलारे यशोदा के प्यारे
गोपियों की आँखों के तारे कन्हैया
हमारे कन्हैया हमारे कन्हैया हमारे कन्हैया
बाँकी चितवन मोह रही मन
जादू से करते इशारे कन्हैया
हमारे कन्हैया हमारे कन्हैया …..
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )
श्री कृष्ण के गुणों और रुप लावण्य का वर्णन है आज की रचना ! कृष्ण मनहर हैं , आकर्षक वँशी बजा सभी के दिल लूट लेते हैं ! प्रेम प्रतीक , योगेश्वर और महाज्ञानी हैं ! उनके गुणों की रचनाकार, मेरे भैया यूँ तारीफ करते हैं …..मुरली मनोहर के रूप की क्या बात करें ….देखने वाले अपलक देखते रह जाते हैं …..सिर पर मोर मुकुट है …...पीताम्बरी कसे हुए …...ऐसी मधुर वँशी की तान ….से सारे जग को मस्त बनाये हुए हैं …...प्रेमावतारी है …..प्रेमामृत से सभी को आनन्दित किये हुए …...वो योगेश्वर …..महाज्ञानी …..विद्वान हैं …..अपने निश्च्छल ….अलौकिक …..विशुद्ध प्रेम से राधे जु के …..तन मन को प्रभावित किये हुए हैं…...ब्रह्माण्ड जिसके इशारों पर चलता है …..परीक्षा लेने आये ब्रह्मा …...जो स्वयं हार मान …..कृष्ण के चरण पकड़ लेते हैं …...इतने गुणों के होते …..सादगी भी इतनी…...गैयन का ग्वाला बन उन्हें …...जंगल जंगल लिए घूम रहा है …...जंगल जंगल लिए घूम रहा है ……! रचना कृष्ण के योगेश्वर होते हुए भी गैयन चरा , अपनी सादगी का परिचय दे रही है ! वँशी की मधुर तान से तो सारे संसार को सम्मोहित किये हुए है ! ऐसी माधुर्य से परिपूर्ण प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! निराभिमानी कृष्णा की झलक दिखाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
जय जय राधारमण हरि बोल , जय जय राधा रमण हरि बोल
रमणरेती में रमण बिहारीं , रज में लोटत नर और नारी
जहाँ सन्त दर्शन अनमोल , जय जय राधा रमण हरि बोल
मुरलीमनोहर कृष्णा
रचना-15
छोड़-छाड़ सब काम साँवरे आई तेरे द्वार
अरे अब तो निहार ले अरे अब तो निहार ले
देख के ये अंदाज तेरे छोड़ देइ सब लाज
अरे अब तो निहार ले अब तो निहार ले
क्यों बैठा है मुझसे कान्हा नयन चुरा कर
मझको दास बना ले अपना या रख चाकर
एक बार तो वँशी में मुझ को पुकार ले
अरे अब तो निहार लेयर अब तो निहार ले
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )
राधे जु की विरह वेदना है आज की रचना ! कन्हाई के मथुरा गमन का बिछोह श्री जु सह नहीं पाती हैं और बावरी सी हुई , बदहवास इधर उधर डोलती , निगाहें कान्हा ही की तलाश में रहती हैं ! वँशी की धुन कानों में पड़ती है पर कान्हा कहाँ , वो खोज नहीं पाती ! उनकी ऐसी वेदना को रचनाकार मेरे भैया ने यूँ छुया है …..कन्हाई ….मधुर मधुर …...धीमे धीमे …..मेरे कानों में पड़ रही …..तेरी वँशी की धुन …..मेरे मन का चैन छीने हुई है …..मेरे मनमोहिना …..कहाँ चले गए हो ?......तेरा विरह सह नहीं सकती …..मधुर …..निराली धुन सुन ….दिल जल्दी जल्दी धड़कने लगता है …..सम्मोहित सी हुई …..मानों तेरा हुक्म मान …...मेरा हर कदम …..तेरी सदा की ओर….. ही तो बढ़ने लगता है …..तब ना बुद्धि काम करती है …..ना दिल मानता है …...,तेरी वँशी के सात सुरों में ही उलझी हुई हूँ मैं …..पता नहीं तुम से कैसा नाता है मेरा …...न कोई विनती …..न प्रार्थना अरजोई ….कुछ भी तो काम नहीं करती …..तुम मेरे पास होते हो …..तो मन कैसा खिला खिला रहता है …..और अब तेरे वियोग में …..मुरझाई हुई हूँ मैं …..प्रेम की डोरी से बांध रखा है तूने मुझे…..और उसी मजबूत प्रेम डोरी से…..आकर्षित हो मैं तेरी ओर ….खिंचती जाती हूँ …..तेरे बिछोह में …..बावरी सी बन …..भटक रही अपनी राधा को…...जल्द आकर अपने प्रेमपाश में लेले …..कन्हाई …..अपने प्रेमपाश में लेले …..! रचना राधेजु के अधीर मन की वेदना है जो आपने साँवरिया के मथुरा गमन के कारण सह नहीं पाती , उनके व्यथित मन की वेदना हैं ! ऐसी मर्मस्पर्शी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! प्रेम में विरह ही आनन्ददायी और पिया मिलन की राह है , यही भक्ति है , बताने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
जमना किनारे श्याम बंसरी वजा गया
प्रेम दीयां मारीयां नू होर तड़पा गया
दस्सो नी तरीका कोई श्याम नू मनाण दा
जदों दा ओह रुसया ऐ मेरा दिल जानदा
वंशी वाला मैनूं कमली बना गया
प्रेम दीयां …..
रसिकबिहारी कृष्ण कन्हाई
रचना-16
रास में कान्हा मुझे शामिल करो ना
ये कृपा का हाथ मुझपर भी धरो ना
लता बना दो पत्ता बना दो या तरुवर की बेल बना दो
यमुना जी का कुल बना दो या मधुवन की धूल बना दो
ये कृपा का हाथ मुझ पर भी धरो ना
रास में कान्हा मुझे शामिल करो ना
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )
रासलीला का प्रसंग है आज की रचना ! कान्हा ने वँशी क्या बजाई , सभी गोपियां सम्मोहित सी हो , उल्टे सीधे श्रृंगार किये मधुवन की ओर भागी चली आईं ! तीनो लोक और वहां के रहने वाले देवता भी मंत्रमुग्ध से हो गए ! गोपियों के आते ही रासलीला शुरू हुई ,कन्हाई और राधे जु उनके बीच चाँद की तरह दमक रहे हैं , उनके इस दृश्य को रचनाकार मेरे भैया यूँ दर्शा रहे हैं …...मेरे मनमोहना तूने ऐसी गज़ब की वँशी क्या बजाई…..राधे….तेरी दीवानी …..भागी भागी चली आई …. मुरली धुन में अपने नाम सुन…..गोपियाँ भी …..अपने अपने घरों से ….चल पड़ीं …..मुरली में ऐसा क्या जादू है …..जिस से सभी की सभी …..खींची चली आईं …..यही नहीं तीनों लोकों के …..देवता …..ज्ञानी….. और राक्षस भी …..अचम्भित हो गए …...वे भी कन्हाई तुझे ही ढूँढने के लिए निकल पड़े…...सारा ब्रह्माण्ड …… वँशी की धुन की गूँज को…..बड़े गौर से सुन रहा है…..ढोल …..मंजीरे बजने लगे …..तोते …..मोर भी शांत हो मुग्ध बैठे हैं …...इतने में वँशी बजाते हुए …..नंदलाल …..कन्हाई आ जाते हैं …...अब इस रास लीला में …..जगतपति कृष्णा का नृत्य होगा …..जितनी गोपियाँ हैं …...उतने ही कृष्ण प्रकट हो गए हैं …..यह बात आश्चर्यचकित करने वाली थी …..राधा कृष्ण के नृत्य का सबने स्वागत किया …..गोपियों के बीच मे …..राधे कृष्ण की जोड़ी यूँ सज रही है …..जैसे सितारों में चंदा चमक रहा हो …..युगल जोड़ी के नृत्य का…..कवि सङ्ग सभी वन्दन कर रहे हैं …..और सभी दर्शन कर रहे हैं ….दर्शन कर रहे हैं ……! रचना रासलीला का हृद्यस्पर्शी दृश्य पेश कर रही है , कितना मनोहारी है कृष्ण का अनेकों रूप बन सभी गोपियों सङ्ग रास रचाना ! ऐसी आकर्षक प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! आँखों मे रासलीला की छवि बसा देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
बंसरी दी तान सुनके इंद्र दा सिंहासन हिलया
ब्रह्मा जी नूं वेद भूल गए , शिवां दी समाधि खुल गई
वँशी मनमोहन दी वजदी कमाल कर गई
ज़माना सारा रुक नी गया जदों बुल्लां उत्ते श्याम धर लई
रासबिहारी श्री कृष्णा
रचना-17
दरस दिखा कर छिप ना जाना छिप ना जाना
बड़ा प्रेम है तुमसे कान्हा गले लगाना
बहुत रोये हैं नैना तड़प रहा है तन मन
तुझे पाये बिन मनमोहन निस्सार है जीवन
बावरिया अब मुझे कहने लगा ज़माना
छिप ना जाना
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )
ऐसा अद्वितीय , अलौकिक प्रेम है राधे और कृष्ण का , इक दूजे को देखे बिन मन को चैन कहाँ ? दो शरीर एक आत्मा हैं दोनों ! राधे जु कान्हा को देखे बिन विकल हैं , उन्हें , कन्हाई को छोड़ दुनिया का कुछ भी तो नहीं भाता ! कान्हा की ही तमन्ना और कान्हा का ही ज़िक्र , बस इतनी ही दुनिया है राधे जु की ! आज की रचना में रचनाकार मेरे भैया , कृष्ण प्रति राधे जु के उद्गार यूँ दिखा रहे हैं …...मेरे मनमोहना …..तुझे देखे बिन न ही मन को सकून …..और ना ही रात को नींद आती है …..प्यारे …..जबसे तुम्हें देख लिया …..तब से दुनिया की कोई भी चीज़ भाती नहीं …..ये सांसारिक रिश्ते सभी झूठे …..और क्षणभंगुर हैं ….दिखावा मात्र हैं …..कोई किसी के साथ …..चाहे कितना प्यारा ही हो …..भला जाता है क्या ?......जीते जीअ के सम्बन्ध हैं सभी …..मरने पर भूल जाते हैं …..इसलिए मेरा तो दुनिया से ही …...मोह भंग हो गया है …..तुम्ही पर भरोसा है …...तुम्हीं से सभी आशाएँ है…..मेरे गोविन्द …..तुझे मिलने की ही हरदम इच्छा रहती है …..असली धन मेरा तुम हो …...और तुम्हें पा मुझ से कोई धनी है ही नहीं …..बस तुमसे मेरा कभी वियोग ना हो …...तेरे नाम ही की मस्ती है मुझे …..यही खुमारी है मेरी …..तुम ही मेरे सिरताज …..तुम्हीं मेरे शाहों के शाह हो …..इतनी निष्ठा है मुझे तुम में …..अगर पीने को विष भी देदो …...वो भी सहर्ष पी लूँ …..अमृत तो मेरे लिए तुम हो ही …..कभी भी मेरी यह परीक्षा ले लेना साँवरे …..कभी भी परीक्षा ले लेना ……! रचना विशुद्ध , अलौकिक प्रेम के लिए किसी भी तरह की परीक्षा के लिए तत्पर है ! सच्चा प्यार कभी झुकता नहीं , हार नहीं मानता ! दो आत्माओं का जो मेल होता है ! ऐसी प्रेमपूरित प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! शारीरिक रिश्ते निभते नहीं , आत्मिक कभी टूटते नहीं , का ज्ञान देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
तू की जानें श्यामा वे की दुखड़े हुन्दे ने
दिने तड़पदा दिल ते राती नैन रोंदे ने
प्रेमवतारी कृष्णा , करुणाकर कृष्णा
,🍀🌿🌱🍂🍃 रचना-18
बहुत खुशी है श्याम नाम का धन पाया है
जन्म जन्म के बाद नाम मन में आया है
अब तो बस पार है जी अब तो बड़ा पार है
अब तो बेडा पार है जी अब तो बड़ा पार है
एक मरुस्थल के समान जीवन था मेरा
श्याम नाम ने जैसे इसमें डाला डेरा
हृदय लुभाता जैसे वृन्दावन आया है
अब तो बेड़ा ……
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )
राधेरानी की वेदना है आज की रचना ! कान्हा का सानिध्य पाये हुए मन भयभीत है कहीं ये सङ्ग छूट न जाये , कान्हा मोसे दूर ना हो जाएं ! आशंकित मन में उठ रहे उनके भावों को , रचनाकार मेरे भैया ने सुंदर शब्दों में यूँ व्यक्त किया है …....मेरे कन्हाई …...बहुत नेह है तोसे …..देखना दर्श दिखा कभी मोसे…….छिप नहीं जाना…..प्रेम से चाहती हूँ …..मोहे आलिंगन में ले ले…..तेरे दीदार के लिए ….यह नयन आँसू बहाते …..और मन तड़पता रहता है ….तुम बिन यह जीवन निरर्थक है ….मेरे मनमोहिना ….अब तो दुनिया मुझे बावरी ही तो कहने लगी है …..प्यारे …..ना इस मन को दिन में चैन ना रात को आराम …..आँखें अलग आँसुओं से डबडबायी रहती हैं ….अपनी विरह पीड़ा कहूँ भी तो किससे ?.....अहोभाग्य होगा मेरा ….गर सरीर छूटने से पहले …..दर्श दिखा दो मोहे …..सब तुम्हें छलिया …..चित्तचोर कहते हैं …..पर मेरे लिए तो तुम्हीं भगवन हो …..अब न कोई बहाना बने…..ना ही बिलम्ब हो ….जल्द दीदार दे देना …....सोने तुम नहीं देते हो …..सपनों में आ नींद उखाड़ देते हो …..कन्हाई क्या मिलता है तुम्हें ऐसा कर ….सपनों को छोड़ …...आना है तो आकर साक्षात दर्शन दिया कर …..साक्षात दर्शन दिया कर …..! रचना प्रेम विह्वल राधे जी की मनोदशा बयान कर रही है ! जब प्रेम होगा अपने पिया से , उसका सुमिरन हरपल , याद मन में समाई हुई , तभी तो उसकी भक्ति होगी ! हम भी अपने अन्तस में कृष्ण प्रेम की अगन जगालें , फिर बेड़ा पार है ! ऐसी माधुर्य रस से सनी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! प्रेमरस से आनंदित करने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
इकबार तो आकर देख ओ मेरे साँवरिया
राधा यह रो रो कहे
गोविन्द हरि , जय किशोरी जी की
रचना-19
प्यार तेरा चाहिए था मिल गया है
और क्या चाहूँ मेरे कृष्णा
दिल का कमल भी धीरे धीरे खिल गया है
और क्या , चाहूँ मेरे कृष्णा ! प्यार तेरा ….
थी ललक तेरी चरण की धूल की
थी त्रिशंकु-सी लटकती ज़िन्दगी
आसरा तेरी शरण का मिल गया है
और क्या कहूँ मेरे कृष्णा ! प्यार तेरा ……
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )
एक भक्त की कल्पना है आज की रचना ! कन्हाई गर उसके समक्ष प्रकट हो जाएं तो किन किन स्वरूपों में , वे , दरस दिखा सकते हैं और तब उसका उनके प्रति भाव क्या होगा ! इसी कल्पना को रचनाकार मेरे भैया ने बहुत सुंदर शब्दों में यूँ चित्रित किया है …..श्यामसलोना ….गर मेरे सामने प्रकट हो जाएं ….सोचता हूँ .मेरा भाव उनके प्रति क्या होगा ?…...नहीं जानता कौन सा स्वरूप हो…..हो सकता है कोई अनजाना ही रूप हो….बालरूप में आ सकता है …..फिर तो मुझे…..चाचू चाचू कहेगा ना…..भतीजे के लिए माखन मिश्री तो …..मेरे पास होनी ही चाहिए …..शायद गऊओं का पालक ….. गोपाल बनकर ही आये …..और अपनी बाँसुरी की मधुर तान में…..मेरे नाम की टेर ही लगा दे …...तब संसार को मैं क्यों निहारूँगा …..अपने गोविन्द ही को तो देखूँगा …..यह भी हो सकता है …..अपनी आराध्या राधे जु सङ्ग …..युगल सरकार के रूप में आ जाएं …..अपने सभी शिकवे …..शिकायतों को दरकिनार कर …..टकटकी लगा …..अपलक उन्हें निहारता …..उनके सौंदर्य …..और अनुपम रूप का …..रसपान करता रहूँगा…...यह भी हो सकता है …..अपने सखा अर्जुन सङ्ग ही आ जाएं …..और मुझे भी अपना विराट स्वरूप दिखा दें …..तब मैं भी अर्जुन ही की तरह …..उनके श्री चरणों मे नतमस्तक हो जाऊँगा ….नतमस्तक हो जाऊँगा …..! रचना भक्त का अपने कन्हाई प्रति समर्पण दर्शा रही है , कन्हाई किसी रूप में हो , वो पूज्य ही है , भक्त नतमस्तक ही है ! ऐसी प्रेम पगी प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कृष्ण के विभिन्न रूपों से रूबरू करवा देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष
गोविन्द मेरो है गोपाल मेरो है
श्री बांकेबिहारी नन्दलाल मेरो है
गोविन्द हरि , राधे कृष्णा
रचना-20
छोड़ें ज़माने को जीअ चाहता है
तुम्हें रब बनाने को जीअ चाहता है
किसी रोज़ तेरे कदमों में आकर
सिर को झुकाने को दिल करता है ! छोड़ें ज़माने ….
बहुत बात तुमसे हैं करने को लेकिन
जो दिल मे हैं लब तक आई नहीं हैं
वो बातें बड़ी कसमसाती हैं दिल में
वो बातें सुनाने को दिल करता है ! छोड़ें ज़माने …..
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )
एक भक्त की अनुनय विनय है आज की रचना ! श्री धाम , वृन्दावन में बिहारीं जी के मन्दिर में खड़ी है , पर्दा उठने की इंतज़ार में ! उसके मनोभावों को रचनाकार मेरे भैया ने यूँ प्रस्तुत किया है …...कन्हाई …..बहुत दूर से आई हूँ …..मोहे दर्श दे दो ना …..तुम से मिलने की लगन में …..मैं तो रास्ते में कहीं रुकी भी नहीं हूँ …..सारे सांसारिक धंधों को छोड़ …..जन्मों जन्मान्तरों की …..प्रेम पिपासा को मिटाने …..अपने समेत सर्वस्व ….समर्पित ….न्यौछाबर करने के लिए खड़ी हूँ …..तुम जानते हो ….आने के लिए मोहे क्या क्या बहाने …..और क्या क्या गंवाना पड़ा …..तेरा नाम जपने के लिए …..घर , दर , परिवार के बंधन …. तोड़ आई हूँ …..सब ख़्वाबों को भी तिलांजलि दे दी है ….मोह माया से विरक्त …..और हर रिश्ते से बेमुख …..अनासक्त हो …..तेरी शरणागति हूँ …...कन्हाई ….मोहे स्वीकार ले ….मेरे प्यारे …..तेरी मुरली की मधुर टेर …..हर पल मेरे कानों में गूँजती रहती है …..उसी सदा की मारी मैं शरणागति हूँ …..मन में प्रेम अगन जगा …..अब इस तरह से …..पर्दे में तो न छिप …..मोहे दरस दे साँवरे …..मोहे अपने धाम में ही रख ले …..नयन तेरे दर्श को तरसते हैं …...आ , आकर मोहे आलिंगन में लेले …..मेरी जीवन नैया …..मझदार में झँकोले खा रही है …..आ खबैया बन इसे पार लगा दे …..पार लगा दे …..! रचना भक्त की अर्ज़ है कन्हाई को , शरणागति हो रहना चाहता है प्रभु चरणों में , तभी तो जीवन सार्थक होगा ! ऐसी मनभावन प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! कृष्णा ही जीवन मे सर्वोपरि है , का ज्ञान देने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
मिलता है सच्चा सुख केवल भगवान तुम्हारे चरणों मे
रहे ध्यान तुम्हारे चरणों में
यही विनती है पल पल क्षण क्षण
रहे ध्यान तुम्हारे चरणों में , भगवान तुम्हारे चरणों में
सच्चिदानंद , करुणाकर कृष्णा
रचना-21
तेरी प्रीत की वँशी ने दिल मेरा चुराया आज रे आजा रे
कहाँ छुपा निर्मोही तोसे नेहा लगाया आजा रे आजा रे
नज़र चुरा के निकल गया तू सब की नज़रों से बच कर
अपनी बातों से भरमाया तूने सब को हँस हँस कर
दूर हृदय से करना था तो काहे अपने हृदय लगाया , आजा रे
तेरी प्रीत में पागल होकर तुम्हें ढूँढते रहे सदा
दीवाना कर गई हमें बाँके तेरी हर अदा
नींद चुराकर चैन चुराया सारी सारी रैन जगाया , आजा रे
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-1 में से )
राधे जु का करुण क्रंदन है आज की रचना ! कन्हाई अपनी दिनचर्या में व्यस्त , बड़े बड़े संकल्पों से उऋण हो उन्हें अपने बृज धाम और सकल सृष्टि से पाप का विनाश कर धन धान्य जो करना था ! कान्हा के दायित्व को जानती हुई भी श्री जु को कान्हा का सङ्ग बहुत प्यारा था ! कान्हा से किशोरी जी के शिकवों को रचनाकार मेरे भैया ने माधुर्यमय ढंग से यूँ व्यक्त किया है …..कान्हा …..मेरे साँवरे …..तिहारी सेवा में संलग्न हूँ …..मुझे स्वीकार ले मेरे प्यारे …..मुझे स्वीकार ले …..मोसे प्रेम का अटूट सम्बन्ध जोड़ ले …..तुमसे अलगाव ….यह मन स्वीकारता नहीं ….तड़पता …..रोता है ….तुझ बिन जीना भी निस्सार लगता है ….तेरे बिछोह में ….कभी ढंग से यह तन सो नहीं पाया …..ना मालूम तुमने मोहे कैसा प्रेमरोग लगा दिया …..पहले तो कभी ऐसा हुआ ना था …..इस प्रेमरोग की दवा भी तो तुम्ही करोगे …..तेरे वियोग में जीना भी कोई जीना है प्यारे …..तुझ बिन बोझिल सी हो गई है यह ज़िन्दगी …..सूरज के अस्त होने के साथ ही …..ज़िन्दगी के एक एक कर …..दिन घटते जा रहे हैं …..यह सोच सोच ….तेरे विरह में मन द्रवित रहता है …..ना खाना पीना अच्छा लगता है …..ना जीने और मरने में कोई फर्क लगता है …..तुझ से प्रेम कर मैं तो पछता रही हूँ ….कान्हा ….तोसे प्रेम कर पछता रही हूँ …..! रचना राधे जु की प्रेम वेदना है , कन्हाई के बिन पल काटने भी मुहाल ! यह है विशुद्ध प्रेम की पराकाष्ठा …..जो उनकी भक्ति बन गई , हर घड़ी का निरन्तर चिंतन ! ऐसी मनमोहक प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार धन्यवाद ! साँस साँस अपने साँवरे की याद और सुमिरन चलता रहे , समझाने के लिये उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
तू की जाने श्यामा वे की दुखड़े हुन्दे ने
दिने तड़पदा दिल ते राती नैन रोंदे ने
रास रासेश्वरी श्री राधे
रचना-22
तुम रहो रूबरू श्याम मेरे सदा
अपलक मैं तुम्हें ही निहारा करूँ
तेरा पूजन करूँ तेरा अर्चन करूँ
तेरा वन्दन करूँ पग पखारा करूँ ! तुम रहो …..
तेरी सेवा में खोया रहूँ रात दिन
चाहे जीवन हो कितना कठिन से कठिन
नाम रस का तेरे , जाम मिलता रहे
रूखे सूखे में चाहे , गुज़ारा करूँ ! तुम रहो …..
( श्री योगेश वर्मा स्वप्न जी की पुस्तक कृष्ण माधुर्य-2 में से )
राधे जु कन्हाई को दिलो-जान से चाहती हैं तो कन्हाई भी तो अपनी आराध्या श्री जु पे जान छिटकते हैं ! सारी गोपियों के रहते गर किशोरी जी उनमें सम्मिलित नहीं हैं तो कान्हा भावविह्वल हो जाते हैं आज की रचना में राधे जु के रास में न पहुँच पाने पर कान्हा असमंजस में हैं , उनके भावों को रचनाकार मेरे भैया ने यूँ छुया है …...रास का समय हो चुका है….राधे अभी तक नहीं पहुँची ….क्या कारण हो सकता है ?.....वो क्यों नहीं आई ?.....उस प्रेम दीवानी ….मेरी प्रिया जु को….उसके घर वालों ने रोक लिया …..या हो सकता है ….पिछली रात को रास रचाते ….पड़े पैरों के छालों की दर्द के कारण ….ना आ पाई हो ….यह भी हो सकता है…..रात को अकेली आने से…..जंगली जानवरों से डर रही हो …..क्या कारण हो सकता है ….मेरी समझ से परे है …..लोगों के तानों से भी घबरा सकती है …..घर मे हो सकता है ….अतिथि आ धमके हों …..या मुझे मिलने से शर्मा भी तो सकती है ….लज्जा तो नारी का आभूषण है ….ना आने का कारण स्पष्ट नहीं हो रहा ….हो सकता है किसी गोपी को …..श्री जु से द्वेष हो …..उसी ने न रोक लिया हो …..ना आने का कारण ….किसी की बुरी टोक भी हो सकती है ….पनघट पर आज दिन में …..किसी गोपी से झगड़ा ही न हो गया हो …..कैसे जानूँ राधे आई क्यो नहीं …..मेरे मन मे राधे के लिए….कैसे कैसे गलत ख्याल आ रहे हैं …..प्रिया जु बिन अपने आप को …...कितना असहाय अनुभव कर रहा हूँ मैं ….उनके बिन जीवन का …..एकाकीपन …..कैसे काट पाऊँगा …..कैसे काट पाऊँगा ….! रचना कन्हाई के राधजु के प्रति विलक्षण प्रेम को दिखा रही है , अपनी स्वामिनी …..अपनी आराध्या बिन कन्हाई बेबस से दीखते हैं ! ऐसी अलौकिक प्रेम की प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! प्रेम कोई प्रतिवाद नहीं , दो आत्माओं का सुमेल है , दिखाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
राधे रानी के चरण प्यारे प्यारे
मेरी लाडो के चरण प्यारे प्यारे
इन चरणों की शोभा है भारी
सेवा करें नित बांकेबिहारी
ये तो भव से पार उतारें
राधेरानी के चरण प्यारे प्यारे
प्रेमवतारी श्री कृष्णा
रचना-23
एक बार भोले भण्डारी बन कर बृज की नारी वृन्दावन आ गए
पार्वती भी मनाके हारी , माने ना त्रिपुरारी वृन्दावन आ गए
पार्वती से बोले भोला ,मैं भी चलूँगा तेरे संग में
राधे सङ्ग श्याम नाचे , मैं भी नाचूँगा तेरे संग में
रास रचेगा बृज में भारी मुझे दिखाओ प्यारी ! वृन्दावन….
कन्हैया की रासलीला में किसी भी पुरुष की उपस्थिति वर्जित थी ! कैलाश पर भोले बाबा वँशी की तान सुन माँ पार्वती सङ्ग बृज की ओर चल दिये , पर पुरुषों की मनाही के कारण शिव भोले रासलीला में शामिल न हो पाए ! उन्होंने एक तरकीब सोची , नारी का वेश और रूप सज्जा करली ! कन्हाई भांप गए , रास में शामिल रहने के लिए उन्होंने कन्हाई से जो अनुनय विनय की उसे रचनाकार मेरे भैया ने सुंदर शब्दों से शिंगारा है …..कन्हाई ….मोहे भी रास में शामिल कर लो …..इतनी कृपा तो मुझ पर कर ही दो …..चाहो तो कोई बेल बना लो ….पत्ता …..पेड़ ….या लता ही बनालो …..चाहो तो यमुना का किनारा …..या मधुवन की रज ही बनालो …..ऐसी कृपा हो जाये तो मैं भी….रास में सम्मिलित हो जाऊँ…..गोपी बनालो ….अपनी राधे भी बना सकते हो ….मैं भी वैजन्तीमाला माला की तरह…..दमक सकता हूँ …..वँशी बन तेरे अधरों पर सज सकता हूँ …..कोई भी कृपा करो …..पर मोहे रास में शामिल कर ले …..अपना कोई भी वाद्य यंत्र बनालें …..झाँझ …..मंजीरे …..ढोल….. यह भी नहीं तो ढोल का खोल ही बना ले …..गीतों का संगीत ….गीतों के मुखड़े …..बना ले ….पर रासलीला में शामिल ज़रूर कर ले…..मोर का पँख …..आरती का शंख ….. मधुवन का फूल …..फूल नहीं तो कांटा ही बनालें …..पर रासलीला में सम्मिलित कर ले …..मैं किसी से यह भेद नहीं कहूँगा …..कह दूं तो तभी ही भले मेरी मौत ही हो जाये …..तुम सङ्ग रास रचा …..गोपी नाथ कहलाना चाहता हूँ …..इतनी कृपा मुझ पर कर …..और मुझे रास लीला में रहने की आज्ञा देदो …..रासलीला में रहने की आज्ञा देदो …..! रचना शंकर बाबा की रासलीला में शामिल होने की उत्कट इच्छा को दर्शा रही है ! सच भी है रासलीला को देखने के लिए देवता भी तरसते रहे हैं ! शिव भोले की रासलीला देखने की ललक को दिखाती प्रस्तुति के लिए मेरे भैया योगेश जी का आभार , धन्यवाद ! रासलीला कैसी मनोहारी , विलक्षण है , का आनन्द दिलाने के लिए उन्हें साधुवाद एवं हार्दिक स्नेहिल मङ्गलाशीष !
ओ मेरे भोले स्वामी , कैसे ले जाऊँ मेरे साथ मे
मोहन के सिवा वहां कोई पुरुष ना जावे रास में
हंसी करेगी बृज की नारी मानो बात हमारी
वृन्दावन आ गए वृन्दावन आ गए
जय शिव शंकर भोलेनाथ
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