परिवर्तन
तुम मेरे द्वार आए, किन्तु,
अकारण ही मैंने,
अपने द्वार बंद कर लिए.
मुझे अपने ही भवन में सताने लगे
अपने ही साए
अपनी ही सांसों से घुटने लगा मेरा दम
प्रातः भी हुई, दोपहर भी हुई , और हुई शाम भी
किन्तु मेरे लिए था
केवल रात्रि का तम
अन्धकार में भटकते भटकते
अनजाने ही मैंने द्वार खोल दिए
मैं प्रकाश का अभ्यस्त भी ना हो सका
कि तुम मेरे अन्दर आ गए
और मैं बाहर निकल पड़ा
तुम्हें खोजने
अब प्रकाश कि भटकन शुरू हुई
मैं भवन के चरों और खोज रहा था तुम्हें
कि मैंने देखा
मेरे भवन में प्रकाश हो रहा है
कोई दीपक जलाये बैठा है
मैं अन्दर गया और देखा , तुम ही थे
हाँ मैंने तुम्हें पा लिया
और अपने भवन का द्वार
सबके लिए खोल दिया
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3 टिप्पणियाँ:
मैं भवन के चरों और खोज रहा था तुम्हें
कि मैंने देखा
मेरे भवन में प्रकाश हो रहा है
कोई दीपक जलाये बैठा है
मैं अन्दर गया और देखा , तुम ही थे
हाँ मैंने तुम्हें पा लिया
और अपने भवन का द्वार
सबके लिए खोल दिया
सुंदर भाव ,बधाई
sundar, paavan vichar. bhakti ke prati aapki aasakti dekhate hi banati hai.
बहुत सुन्दर रचना है आस्था से भरपूर बधाई आपको
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